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________________ अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : १९३ जयसेनने समयसारकी टीकामें अमृतचन्द्रके नामका उल्लेख किया है और उनकी टीकासे कुछ पद्य भी यथास्थान उद्धृत किये हैं। अतः यह सुनिश्चित है कि जयसेनके सन्मुख अमृतचन्द्रकी टीका थी। फिर भी जयसेनकी टीकाकी शैलीमें अमृतचन्द्रसे भिन्नता है तथा मूल ग्रन्थकी गाथासंख्यामें भी अन्तर है। अमृतचन्द्रके अनुसार समयसारकी गाथा संख्या ४१५ है किन्तु जयसेनके अनुसार ४४५ है। अमतचन्द्र जैसे मनीषीकी टीकाके सामने रहते हए भी जो जयसेनाचार्यने अतिरिक्त गाथाओंको अपनी टीका में सम्मिलित किया और विशिष्ट पाठोंको स्थान दिया, इसका कारण यह तो होगा ही कि उनके सामने मुल ग्रन्थकी अधिक गाथावाली तथा विशिष्ट पाठवाली प्रति रही है। किन्तु इससे उनकी स्वतंत्र विचारशीलता तथा पाण्डित्य भी प्रकट होता है। जयसेन प्रथम प्रत्येक गाथाके पदोंका शब्दार्थ देते हैं। पीछे 'अयमत्राभिप्रायः' आदि लिखकर उसका स्पष्टीकरण करते हैं । अतः उन्होंने अपनी टीकाओंको जो 'तात्पर्यवृत्ति' नाम दिया है वह यथार्थ प्रतीत होता है। उनकी टीकामें प्रायः समस्त मूल ग्रन्थ शब्दशः समाविष्ट है। उनकी टीकामें उद्धरणोंकी भी विशेषता है जिससे प्रकट होता है कि अध्यात्मवित् होते हुए भी वह ग्रन्थावलोकनके प्रेमी थे। समयसारकी टीका में अनेक प्राकृत गाथाएँ तथा श्लोक उद्ध त हैं। गाथा सिद्धभक्ति, मूलाचार, परमात्मप्रकाश, गोमट्टसार आदिकी हैं। किन्तु कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं जो उपलब्ध ग्रन्थोंमें नहीं मिलती। इसी तरह अनेक श्लोकों के भी मूलस्थानका पता नहीं चलता । स्वयंभूस्तोत्र, रत्नकरंड श्रावकाचार तथा इष्टोपदेशके भी श्लोक उद्धृत हैं । एक श्लोक पञ्चास्तिकायके नामसे उद्धत किया है। यह संस्कृतका पञ्चास्तिकाय कब किसने बनाया कुछ ज्ञात नहीं। कुन्दकुन्दके तीनों प्राभृतों पर रचित टीकाओंके सिवाय इन जयसेनाचार्यकी अन्य किसी कृतिका पता नहीं चलता। समय विचार--प्रवचनसारके तात्पर्यवृत्तिटीकाके पश्चात् एक छोटी सी प्रशस्ति मुद्रित है जिसे टीकाकारको प्रशस्ति बतलाया है। किन्तु वह प्रशस्ति टीका१. पृ० ११२, ११३, १६७, १७०, १९४, २०९, २१०, २११ । २. तत्र शुद्धपारिणामिकस्य बंधमोक्षस्य कारणरहितत्वं पञ्चास्तिकायेऽनेन श्लोकेन भणितमास्ते-'मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रीपशमिकः क्षायिकाभिधाः । बन्धमौदयिको भावो निष्क्रियः पारिणामिकः ।'-सम० सा०, पृ० २०९ । १३
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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