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________________ १९२ : जेनसाहित्यका इतिहास जयसेनने अपनी पचांस्तिकायटीकाके आरम्भमें ( ९.८ ) वीरनन्दिके आचारसारणे दो पद्य ( ४।९५-९६) उद्धत किये हैं। और वीरनन्दिने अपने आचारसार पर एक कन्नड़ टीका लिखी थी जो उन्होंने वि० सं० १२१० में पूर्ण की थी। अतः आचारसार उससे कुछ पहले रचा गया था यह निश्चित है। और प्रेमीजी के कथनानुसार पद्मप्रभ और उनके गुरु १२४२ वि० सं० में विद्यमान थे। तो कहना होगा कि विक्रमकी १३वीं शताब्दीके प्रारम्भमें आचारसार रचा गया, और उसके प्रथम चरणके अन्तमें जयसेनाचार्यने अपनी टीकाएं रची और द्वितीय चरणके अन्तमें पद्मप्रभने नियमसारकी टीका रची। अतः पद्मनन्दिने अपनी एकत्वसप्तति आचारसारके समकालके लगभग तो अवश्य रची होनी चाहिये। ऐसी स्थितिमें उनका पद्मप्रभ मलधारी देवके गुरु वीरनन्दिका शिष्य होना सम्भव प्रतीत नहीं होता है । आचारसारके कर्ता वीरनन्दिके शिष्य होनेमें भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत पद्मनन्दि अमितगतिके पश्चात् हुए हैं । उनकी पद्म-पचवि०के क्रियाकाण्ड चूलिका नामक अधिकार में एक पद्य इस प्रकार है मनोवचोऽङ्गः कृतमङ्गिपीडनं प्रमोदितं कारितमत्र यन्मया । प्रमादतो दर्पत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम ।।११।। अमितगति सूरि रचित 'द्वात्रिंशतिका' के नीचे वाले पद्यकी झलक इस पद्यमें मिलती है। एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः प्रमादतः संचरता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥ अमित गतिने विक्रम सम्बत् १०७३ में अपना पंच संग्रह रचा था। अतः पद्मनन्दि विक्रमको बारहवीं शताब्दीमें हुए हैं । टीकाकार जयसेन आचार्य जयसेनने भी अमृत चन्द्रकी तरह आचार्य कुन्दकुन्दके समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय नामक ग्रन्थोंपर टीकाएँ लिखी हैं और तीनों टीकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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