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अध्यात्म-विषयक टीका - साहित्य : १९१
समय विचार - आचार्य पद्मनन्दिने पहले प्रकरणके अन्तमें अपने गुरु वीर नन्दि को नमस्कार किया है । जिससे केवल इतना ही ज्ञात होता है कि उनके गुरूका नाम वीरनन्दि था । जम्बूद्वीप पण्णत्तिके कर्ताका नाम भी पद्मनन्दि है किन्तु उनके गुरुका नाम बलनन्दि और प्रगुरुका नाम वीरनन्दि है । अत: इन दोनोंका ऐक्य संभव प्रतीत नहीं होता । पद्मनन्द नामके अन्य भी अनेक आचार्य होगये हैं जिनका निर्देश जम्बूद्वीप पण्णत्तिके कर्ताका समयविचार करते हुए पहले किया जा चुका है । अतः पद्मनन्दी आचार्य के नामके आधारपर समय निर्णय कर सकना तो अशक्य ही है ।
१. यह निश्चित है कि यह पद्मनन्दी अमृतचन्द्र (विक्रमकी दसवीं शती) के पश्चात् हुए हैं । क्योंकि उनके उक्त प्रकरणोंपर उनके ग्रन्थोंका प्रभाव है । अत: उनकी पूर्वावधि विक्रमकी दसवीं शतीका अन्तिम भाग समझना चाहिए ।
२. जयसेनाचार्यने अपनी पञ्चास्तिकायकी टीका ( ४.२३५) में नीचे लिखा पद्य तथा चोक्तमात्माश्रितनिश्चयरत्नत्रयलक्षणं, लिख कर उद्धृत किया है' दर्शनं निश्चयः पुंसि बोध स्तद्बोध इष्यते । स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः ॥ '
पद्मप्रभ मलधारिदेवने यही पद्य नियमसारकी टीका ( ४.४७) में ' तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ' लिखकर उद्धृत किया है । उक्त पद्य पद्मनन्दिकी एकत्व सप्तति का १४वाँ श्लोक है । अतः यह निश्चित है कि उक्त पद्मनन्दि जयसेनाचार्यसे पहले हुए हैं। डॉ० उपाध्येने जयसेनका समय ईसाकी बारहवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निश्चित किया है । इसे पद्मनन्दिकी उत्तरावधि मानना चाहिए । अतः पद्मनन्दि विक्रमकी दसवीं शताब्दी के अन्त से लेकर विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके आरम्भ तकके कालमें किसी समय हुए हैं ।
पद्मप्रभ मलधारीने भी अपनी नियमसार टीकाके प्रारम्भमें अपने गुरु वीरनन्दिको नमस्कार किया है। श्री प्रेमीजीने' इसपरसे पद्मप्रभ और पद्मनन्द एक ही गुरुका शिष्य होनेकी संभावना करके दोनोंके समकालीन होनेका अनुमान किया है तथा एक शिलालेखके आधारपर पद्मप्रभ और उनके गुरु वीरनन्दिको वि० सं० १२४२ में विद्यमान बतलाया है ।
किन्तु पद्मप्रभसे पूर्व जयसेनाचार्यने पद्मनन्दि की एकत्व सप्ततिसे पद्य उद्धृत किया है । और पद्मप्रभने जयसेनकी टीकाओंको देखा था, यह उनकी टीकाके तुलनात्मक अध्ययनसे स्पष्ट है । अतः पद्मनन्दि और पद्मप्रभके मध्य में जयसेनाचार्य हुए हैं यह निश्चित हैं ।
१. जै० सा० ई०, पृ० ४०७ ।