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१९० : जेनसाहित्य का इतिहास परिचित थे। किन्तु उपलब्ध महासेनोंमेंसे कोई नयसेनका शिष्य नहीं है । प्रेमीजीने पद्मप्रभका समय विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी निश्चित किया है, अतः उससे पहले स्वरूप सम्बोधन बन चुका था। पद्यनन्दिकृत निश्चयपञ्चाशत् __अमृतचन्द्र सूरिने कुन्द-कुन्दके समयसारपर आत्मख्यातिको रचकर अध्यात्मकी जो गंगा प्रवाहित की, उसने उनके पश्चात् होनेवाले अनेक जिन ग्रन्थकारोंको अध्यात्मकी ओर आकृष्ट किया, उनमें एक आचार्य पद्मनंदि भी थे। पद्मनन्दि पञ्चविंशतिकाके नामसे उनका एक उपदेश प्रधान ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है जिसमें पच्चीस प्रकरण संगृहीत है । उन्हींमेंसे एक प्रकरणका नाम निश्चय पञ्चाशत् है।
यह ६२ श्लोंकोंका प्रकरण समयसार और उसकी आत्मख्याति टीकाके आधारपर रचा गया है। इसमें आत्मख्यातिके अर्न्तगत समयसार कलशाके कई श्लोक भी उद्धृत पाये जाते हैं । समय सारके सुदपरिचिदाणुभूदा आदि गाथा ४ को लेकर नीचे लिखा पद्य रचा गया है
श्रुतपरिचितानुभूतं सर्व सर्वस्य जन्मने सुचिरम् ।
न तु मुक्तयेऽत्र सुलभा शुद्धात्मज्योतिरुपलब्धिः ॥६॥ इसी तरह समयसारके 'ववहारो भूदत्यो' आदि गाथा ११ को संस्कृतमें रूपान्तरित करके लिखा है
व्यवहारोऽभूतार्थों भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः ।
शुद्धनय आश्रिता ये आप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ।।९।। इसीतरह इसके प्रारम्भिक पद्योंमें अमृतचन्द्राचार्यके पुरुषार्थ सिद्धयुपायके श्लोकोंकी झलक भी प्रतीत होती है। तथा श्लोकोंमें आत्मख्यातिकी झलक स्पष्ट है।
इस ग्रन्थके अन्तर्गत अन्य भी कई प्रकरण ऐसे हैं जिनमें लेखककी अध्यात्म दृष्टि सन्निहित है । उसमें एक प्रकरणका नाम 'एकत्व सप्ततिका है । इस प्रकरणके इसी नामसे अनेक पद्य पद्मप्रभ मलधारि देवने अपनी नियमसार टीकामें उद्धृत किये हैं । एकत्व सप्ततिमें चैतन्य स्वरूप आत्माको ही सब कुछ बतलाते हुए यहाँ तक लिखा है कि वही महती विधा है। वही मंत्र तंत्र और जन्म जरा रूपी रोगोंकी औषधि है ॥४९॥ उस शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्माकी उपासनाका उपाय है एक मात्र साम्य भाव । साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध, और शुद्धोपयोग ये सब एकार्थवाचक हैं ॥६४॥
इस तरह ये छोटे-छोटे प्रकरण बहुत ही सुन्दर सरल संस्कृतमें रचे गये हैं और उनमें सारभूत तत्त्व भर दिया गया है ।