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________________ १८८ : जैनसाहित्य का इतिहास होता है कि चूंकि अमृतचन्द्र उनके समयके लगभग ही हुए थे इस लिये उनके सामने उनका साहित्य नहीं आ सका था । स्वरूप सम्बोधन पंचविंशति स्वरूप सम्बोधन नामका एक छोटा सा प्रकरण ग्रन्थ है जो संस्कृतके २५ अनुष्टुप श्लोकोंमें रचा गया है। इसके अन्तिम पद्यमें 'स्वरूप सम्बोधन पञ्चविंशति' पद आता है। जिससे प्रकट होता है कि इसका नाम स्वरूप सम्बोधन है और चूँ कि इसकी श्लोक संख्या २५ है अतः उसके अन्तमें पञ्चविंशति पद जोड़ दिया गया है जैसे 'पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका' । __जैसा कि इसके नामसे प्रकट होता है इसमें अध्यात्म शैलीमें आत्मस्वरूपका संबोध कराया गया है। इसकी शैली अमृतचन्द्राचार्य रचित समयसार कलशके पद्यों से मिलती है । इसका प्रथम मंगल श्लोक है मुक्तामुक्तकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना । अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्ति नमामि तम् ॥१॥ यह श्लोक काशीस्थ भारतीय जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थासे प्रकाशित समयप्राभृतमें अमृतचन्द्रकी टीकाके अन्तमें छपा हुआ है। किन्तु समयसार कलशके संगृहीत पद्योंमें नहीं पाया जाता। यह मंगल श्लोक अमृतचन्द्रकी रचनासे बिल्कुल मेल खाता है । अन्य भी श्लोकोंकी प्रायः यही शैली है। किन्तु इस ग्रन्थके रचयिताके सम्बन्धमें मतभेद पाया जाता है। स्व० डॉ० विद्याभूषणने' अकलंक रचित ग्रन्थोंमें इसका निर्देश किया है। लघीयस्त्रयादि संग्रहमें इसका प्रकाशन भट्टाकलंकके नामसे हुआ है। मूडविद्रीके जैनमठमें इस ग्रन्थकी ताडपत्रीय अनेक प्रतियां हैं। उन सबमें इसके कर्ताका नाम आचार्य अकलंकदेव लिखा हुआ है। सप्तभंगी तरंगिणी (पृ० ७९)में इसका तीसरा श्लोक 'तदुक्तं' अकलंकदेवैः' करके उद्धृत है। इस तरह इसके अकलंकदेव कृत होनेके प्रमाण उपलब्ध है। किन्तु डॉ० ए० एन० उपाध्येने अपने एक लेखमें प्रकट किया था कि कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन मठमें स्वरूप सम्बोधनकी एक कनड़ी टीका मौजूद है उसमें नयसेनके शिष्य महासेनको उसका कर्ता बतलाया है। तथा नियमसारकी संस्कृतटीकामें १. हि० मि० इं० ला०, पृ० २६ । २. क० ता० ज० प्र० सू०, पृ० ३१ । ३. भां० ई०प०।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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