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अध्यात्म-विषयक टीका - साहित्य : १८७
अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वदि जति ॥७७॥-मो० पा०
काकंागहिया विसयपसत्था
सुमग्गपब्भट्ठा ।
एवं भणति केई ण हु कालो होड़ कालस्स ( झाणस्स ) || १४ ||
अज्जवि तिरयणवंता अप्पा झाऊण जंति सुरलोयं ।
तत्त्थ चुआ मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं ।। १५ ।। त० सा० ।
जिस तरह से कुन्दकुन्दाचार्यने आत्माका वर्णन निषेधरूपमें किया है कि आत्माके मार्गणा स्थान नहीं, गुणस्थान नहीं, वर्णादि नहीं (स० प्रा० गा० ५०५५) वैसे ही तत्त्वसार में भी संक्षेपसे आत्माका कथन किया गया है ( गा० १९-२१) । तथा आत्मा और कर्मका सम्बन्ध दूध और पानीकी तरह बतलाकर ( गा० २३) ध्यानके द्वारा उन दोनोंको भिन्न करनेका उपदेश दिया है । तथा व्यवहारनय और निश्चयनयके द्वारा वस्तुका स्वरूप बतलाकर लिखा है कि जो दोनों नयों के द्वारा वस्तु स्वभावको जानता है उसका मन रागद्वेष और मोह से चंचल नहीं होता ।। ( गा० ३९) ।
आगे कहा है कि जो आत्मा है वही ज्ञान है, वही दर्शन है और वही चारित्र है । तथा निश्चयनयसे वह सब शुद्ध चैतन्यमय है ( गा० ५७) । उसीका ध्यान करनेसे मोहका नाश होता है । और जैसे राजाके मर जानेपर सेना स्वयं ही नष्ट भ्रष्ट हो जाती है वैसे ही मोहनीय कर्मके नष्ट होने पर समस्त घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं ( गा० ६५) घातिकर्मोंके नष्ट हो जानेपर केवलज्ञान उत्पन्न होता है । उसके पश्चात् समस्त कर्मोंको क्षयकरके जीव सिद्ध हो जाता है और लोकके अग्रभागमें निवास करता है ( गा० ६६-६७ ) ।
इस तरह कुन्दकुन्दाचार्य की ही शैलीमें इस तत्त्वसारकी रचना की गई है ।
रचना काल — इसके रचयिता मुनिनाथ देवसेन हैं । यह वही देवसेन हैं जिन्होंने विक्रम संवत् ९९० में धारा नगरीके पार्श्वनाथ चैत्यालयमें दर्शनसारकी रचना की थी । आराधनासार तथा नयचक्र भी इन्हींके बनाये हुए हैं । दर्शनसार ( गा० ४३ ) में इन्होंने लिखा है 'यदि पद्मनन्दिनाथ ( कुन्दकुन्दाचार्य) सीमन्धर स्वामीसे प्राप्त दिव्यज्ञानके द्वारा विशेष वोध न देते तो श्रमण सन्मार्गको कैसे जानते ?' इससे कुन्दकुन्द स्वामीमें उनकी गहरी आस्था प्रकट होती है । किन्तु अमृतचन्दाचार्य का उनपर कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं होता । जिससे प्रकट होता है कि अमृतचन्द्रके साहित्यसे वह परिचित नहीं थे । और इसका कारण यही प्रतीत