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१८६ : जेनसाहित्य का इतिहास
यही प्रतीत होता है कि वे दसवीं शताब्दी में हुए हैं। क्योंकि तत्त्वार्थसारके दो नयोंके लक्षणवाले श्लोक विद्यानन्दिकी तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकसे मिलते हैं । तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः ।
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तथा प्रस्थादि संकल्पः तदभिप्राय इष्यते ॥ १९ ॥ त० श्लो०, (पृ. २६९ )
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अर्थसंकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः ।
प्रस्थोदनादिजस्तस्य विषयः परिकीर्तितः ।। ४४ ।। त० सा०
२ संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकः ।
योवहारो विभागः स्याद् व्यवहारो नयः स्मृतः ॥ ५८ ॥ त० श्लो० ४. २७१ ।
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संग्रहेण गृहीतानामर्थानां
विधिपूर्वकः ।
व्यवहारो भवेद् यस्माद् व्यवहारनयस्तु सः ।। ४६ ।। त० सा० । देवसेन का तत्त्वसार
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मुनिनाथ देवसेनके प्राकृत गाथाओंमें रचित तत्त्वसार नामका एक छोटा सा सुन्दर ग्रन्थ है । इसमें केवल ७४ गाथाएँ हैं ।
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यह तत्त्वसार कुन्दकुन्दके समयसार आदिसे प्रभावित होकर रचा गया प्रतीत होता है । इसमें तत्त्व के दो भेद किये हैं एक स्वगत और एक परगत । अपनी आत्मा स्वगत तत्त्व है और पंच परमेष्ठी परगत तत्त्व हैं । स्वगत तत्त्वके भी दो भेद हैं-- एक सविकल्प और एक अविकल्प । सविकल्प तत्त्व सास्रव होता है और अविकल्प तत्त्व निरास्रव होता है । ३-५ । इनमें से जो अविकल्प तत्त्व है वही मोक्षका कारण होनेसे सारभूत है । अतः निर्ग्रन्थ होकर उसीका ध्यान करनेकी प्ररणा की गई है || ९ ||
शंका और आकांक्षाके वशीभूत कुछ मार्ग भ्रष्ट विषयासक्त मनुष्य कहते हैं कि यह काल ध्यानके योग्य नहीं है । किन्तु आज भी रत्नत्रयके धारी आत्मा ध्यानके द्वारा स्वर्ग में जाते हैं और स्वर्गसे च्युत होनेपर मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥। १४ - १५ ।। ये दोनों गाथाएँ कुन्दकुन्दके मोक्खपाहुडका अनुकरण मात्र हैं । यथा
चरियावरिया वद समिदि वज्जया सुद्ध भावपन्भट्ठा । केई जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ॥ ७३ ॥
१. मा० जै० प्र० बम्बईसे तत्त्वानुशासनादिसंग्रहके अन्तर्गत प्रकाशित हुआ है ।