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________________ १८४ : जैनसाहित्य का इतिहास उपाध्येने उनके इस मतको मान्य नहीं किया है और लक्ष्मीचन्दको सावयधम्म दोहाका रचयिता माना है तथा उन्हें श्रुतसागर और ब्रह्मनेमिदत्त (१५२८ ई०) से अधिक प्राचीन बतलाया है । ___ सावयधम्म दोहामें वर्णित श्रावकाचारके तुलनात्मक परीक्षण से हमारा भी यही मत है कि सावयधम्म दोहा पाहुड़ दोहासे अर्वाचीन होना चाहिये । पाहुड़ दोहाका उल्लेख जयसेनने प्रवचनसारकी टीकामें 'दोहकसूत्र' नामसे किया है और एक दोहा उद्धृत किया है । किन्तु सावयधम्म दोहाका उल्लेख आशाधर तकने नहीं किया, जबकि उन्होंने धर्मामृतकी टीकामें अपने पूर्ववर्ती अनेकों श्रावकाचार विषयक ग्रन्थोंका उल्लेख किया है तथा उनसे उद्धरण लिए हैं । अतः सावयधम्म दोहा आशाधरके सामने उपस्थित नहीं था ऐसा प्रतीत होता है। अतः आशाधरके पश्चात् और श्रुतसागरसे पूर्व उसकी रचना हुई हो यह संभव है। इसलिये देवसेन रचित होनेके आधारपर दोहा पाहुड़को उसके पश्चात्की रचना नहीं माना जा सकता। _ डॉ० उपाध्येने उसे जोइन्दु और हेमचन्द्रके मध्यकी रचना माना है। अब चूँ कि अमृतचन्द्रने उससे एक गाथा उद्धृत की है अतः पाहुड़ दोहा जोइन्दु और अमृतचन्द्रके मध्यमें किसी समय रचा गया होना चाहिए। और अमृतचन्द्र अमित गतिसे पहले हो गये हैं यह हम ऊपर बतला ही आये हैं । तथा देवसेनकी आलापपद्धतिसे भी यह परिचित नहीं थे यह हम लिख आये हैं। अमृतचन्द्र और तत्त्वानुशासन __ इस सम्बन्धमें एक बात और भी उल्लेखनीय है । देवसेनने अपनी आलाप पद्धतिमें कुछ श्लोक और गाथाएँ भी दी हैं । उनमेंसे एक गाथा तो कुन्द-कुन्दके ग्रन्थोंमें पाई जाती है। शेष पद्य भी सम्भव है-अन्य ग्रन्थोंसे उद्धृत किये गये हों। उनमेंसे एक श्लोक इस प्रकार है 'अनाद्यनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले ॥१॥'. यह श्लोक रामसेन रचित तत्त्वानुशासनका ११२वाँ श्लोक है। तत्त्वानुशासन ग्रन्थका उल्लेख जयसेनाचार्यने पञ्चास्तिकायकी टीकामें (पृ० २१२ तक २५३) कई बार किया है । अतः यह निश्चित है कि तत्त्वानुशासन जयसेनाचार्य (ईसाकी १२वीं शताब्दीका उत्तरार्ष) से पहलेका है । अब यदि उक्त श्लोक देवसेनने तत्त्वानुशासन से लिया है तो तत्त्वानुशासन देवसेनसे पहले का ठहरता है। इसमें मुख्य रूपसे ध्यानका वर्णन है और इसीसे जयसेनाचार्यने इसे ध्यान ग्रन्थ कहा है । यह एक उच्चकोटि का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी रचनाका मुख्य आधार
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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