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________________ अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : १८३ १. अमृतचन्द्राचार्यकी टीकाओंमें हमें कुन्दकुन्दाचार्यकी तरह ही या तो द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नयका उल्लेख मिलता है या निश्चयनय अथवा शुद्धनय और व्यवहारनय अथवा अशुद्धनय का उल्लेख मिलता है। उन्होंने न तो निश्चयनयके शुद्ध और अशुद्ध भेदोंका कहीं उल्लेख किया है और न व्यवहारनय के सद्भूत असद्भूत आदि भेदोंका ही निर्देश किया है । जयसेनाचार्यकी टीकाओंमें इन भेद-प्रभेदोंका उल्लेख मिलता है । जयसेन तो निश्चयरूपसे आलापपद्धतिकारके पश्चात् हुए हैं। किन्तु अमृतचन्द्र के विषयमें ऐसा नहीं कहा जा सकता। अमृतचन्द्र आलापपद्धतिसे पहले हो गये हैं, क्योंकि देवसेनकी आलापपद्धतिमें निश्चयनय और व्यवहारनयके भेद-प्रभेदोंका जो कथन है, वह हमें अमृतचन्द्राचार्य के द्वारा समयसारकी टीकामें प्रतिपादित तत्त्वव्यवस्थाके आधारपर रचा गया प्रतीत होता है। उससे पहलेके किसी ग्रन्थमें उन भेद-प्रभेदोंका कथन नहीं मिलता । जिनमें मिलता है वे सब ग्रन्थ आलापपद्धति के पश्चात् के हैं। अमृतचन्द्र और पाहुड़दोहा किन्तु अमृत चन्द्रने पञ्चास्तिकाय (गा० १४६) की टीकामें नीचे लिखी गाथा उद्धृत की है 'अंतो णत्थि सुईणं कालो थोवो वयं च दुम्मेहा । तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खई कुणइ ।' यह गाथा पाहुड़दोहा में ९८वें नम्बर पर स्थित है। अन्य किसी ग्रन्थमें नहीं पाई जाती । अतः यही कहना पड़ता है कि गाथा अमृतचन्द्रने पाहुड़दोहा से ली है। प्रो० हीरालालजी ने पाहुड़दोहा की प्रस्तावना में उसका रचनाकाल सन् १००० ई० के लगभग अनुमान किया है क्योंकि उन्होंने सावयधम्म दोहाको देवसेन की रचना माना है और देवसेनने वि० सं० ९९० में या ई० ९३३ में अपना दर्शनसार रचा था । सावयधम्म दोहाके दोहा नम्वर ३० और १२९ तथा पाहुड़ दोहा के दोहा नम्बर २१५ और ४३ समान हैं। प्रोफेसर साहबने यह भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है वे दोनों दोहा पाहुड़दोहामें सावयधम्मदोहासे लिये गये हैं । अतः उन्होंने पाहुड़ दोहाका उक्त रचनाकाल स्थित किया है । किन्तु सावयधम्म दोहाका कर्तृत्व विवादग्रस्त रहा है, इसीसे प्रो० हीरालालजीने न तो 'सावयधम्म दोहा' पर उसके रचयिताका नाम दिया और न 'क' प्रतिमें पाये जानेवाले उस अन्तिम पद्यको ही मूलमें स्थान दिया, जिसमें 'देवसेनै उवदिट्ट' पद आता है जिसके आधारपर उन्होंने सावयधम्म दोहाको देवसेन रचित माना है। परमा० प्रका० की प्रस्तावनामें डा० ए० एन०
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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