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________________ १८२ : जेनसाहित्य का इतिहास अमितगति ने उक्त आर्याको परिवर्तित करके यह रूप दिया है यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । आश्वासकारं बाह्य जीवानां जीवितं वित्तं ॥६१॥ व्रतोंके अतिचारोंका कथन करनेवाले पु० सि० के पद्योंको ही अमितगति ने परिवर्तित करके लिखा है । यह दोनोंकी तुलनासे स्पष्ट हो जाता है। नीचे दो एक उदाहरण देना अनुचित न होगा। प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् । राजविरोषातिक्रम हीनाधिकमानकरणे च ।।१८५॥ पु० सि० व्यवहारकृत्रिमकः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् । ते मानवपरीत्यं विरूद्धराज्यव्यतिक्रमणम् ॥५॥ -अमि० श्रा०, अ०, ७ । कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखयं । असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पञ्चेति ॥१९॥ पु० सि० । असमीक्षितकारित्वं प्राहु गोपभोगनरर्थ्यम् । कन्दपं कौत्कुच्यं मौखर्यमनर्थदण्डस्य ॥१०॥ अमि० श्रा० ७ । X ९ पु० सि० (श्लो० १९६) में कहा है कि जो इन अतिचारों को छोड़कर व्रतादि आचरण करते हैं वे पुरुषार्थसिद्धिको प्राप्त करते हैं। अमितगतिने (७१७)में भी लिखा है कि जो इन सत्तर अतिचारोंका परिहार करते हैं वे भुवनके उत्तमनाथ होते हैं। ___ इस तुलनासे स्पष्ट है कि अमृतचन्द्र अमितगतिसे पहले हो गये हैं । अमृतचन्द्र और देवसेन डॉ० उपाध्ये ने लिखा कि अमृतचन्द्र देवसेनाचार्य (वि० सं० ९९०) की आलापपद्धतिसे परिचित थे। चूंकि डॉ० उपाध्ये ने अमृतचन्द्रका समय ईसाकी दसवीं शताब्दीकी समाप्तिके लगभग माना है अतः उनका वैसा लिखना अनुचित नहीं है । किन्तु जब ईसाकी दसवीं शताब्दीके अन्तमें हुए ग्रन्थकारोंके द्वारा अमृतचन्द्रके पुरुषार्थसिद्धयुपायसे उद्धरण लिये जाने तथा उसका अनुसरण किये जानेकी बात निस्सन्देह है तब यह भी निस्सन्देह है कि अमृतचन्द्र उससे पूर्वमें हुए हैं और ऐसी स्थितिमें देवसेनकी आलापपद्धतिसे उनका परिचित होना भी विचारणीय हो जाता है। जहाँ तक हमने अध्ययन किया है हमें अमृतचन्द्र आलापपद्धतिसे परिचित नहीं जान पड़े । बल्कि देवसेन ही अमृतचन्द्रकी टीकाओंसे परिचित जान पड़े हैं।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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