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अध्यात्म-विषयक टीका - साहित्य : १८१
अमृतचन्द्राचार्यने अपना पुरुषार्थ • मुख्यरूपसे तत्त्वार्थसूत्र और उसकी सवार्थसिद्धि टीका तथा तत्त्वार्थवार्तिक टीकाको आधार बनाकर लिखा है । इन दोनों टीकाओं' में रात्रि भोजन त्यागके छठे अणुव्रत होनेकी शंका की है । और दोनोंमें ही उसका अन्तर्भाव अहिंसाव्रत की भावनाओं में किया है । उसीको आलम्बन बनाकर अमृतचन्द्राचार्यने पाँचों अणुब्रतोंके पश्चात् रात्रिभोजन त्याग व्रत का कथन किया है । और अकलंकदेवने उसके समर्थनमें जो युक्ति दी है उसी को पल्लवित किया है ।
बहुतसे जीवोंकी उत्पत्ति बतलाई किया है । तथा अमृतचन्द्र की ही है, जो अन्य श्रावकाचारोंमें नही
२. पु० सि० ( श्लो० ६३ ) में मद्य में है वही कथन अमितगति ने भी उसी रूपमें तरह मद्यके लिए सरक शब्दका प्रयोग किया
पाया जाता ।
३. पु० सि० ( श्लोक ६५ ) में प्राणिघात के बिना माँस की उत्पत्ति नहीं बतलाई । अमितगतिने भी ( ५।१४ ) वैसा ही कथन किया है ।
४. पु० सि० ( श्लो० ७४ ) में आठोंको त्याग करनेपर जिनधर्म देशनाका पात्र होता है ऐसा कहा है । अमितगतिने भी (५।७३) वैसाही कथन किया है ।
५. पु० सि० श्लो० ८३ ) में जीवोंको घात करने वाले प्राणियोंको मारने का निषेध किया है । अमितगतिने भी ( ६ । ३३) वैसाही कथन किया है ।
६. पु० सि० श्लो० (८६) में सुखी जीवोंको मारने का निषेध किया है । अमित गतिने भी (६।४०) वैसा ही कथन किया है ।
७. पु० सि० में ( श्लो० ९२-९८ ) असत्यके चार भेद किये हैं और उनका स्वरूप कहा है । अमितगतिने भी ६।४९-५५ रूपान्तर करते हुए चार भेदों का Start किया है । तथा चतुर्थ भेदके पु० सि० में जो गर्हित सावद्य और अप्रिय तीन भेद किये हैं; वही भेद अमितगतिने भी किये हैं ।
८. अकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थवातिक ( ७/९ ) में नीचे लिखा श्लोक उद्धृत किया है
' यदेतत् द्रविणं नाम प्राणा ह्य ेते वहिश्चरा. । य तस्य हरते प्राणान् यो यस्य हरते धनम् ॥ अमृतचन्द्र ने इसे आर्याछन्दका रूप दिया है—
अर्थानाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुसाम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥ १०३ ॥
१. ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसंख्यातव्यम् । न, भाव
नास्वन्तर्भावात् — सर्वा०, सि०, तत्त्वा० वा० ७ १ ।
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