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१८० : जैनसाहित्य का इतिहास प्रथम दो गाथाएँ षट्खण्डागम से उद्धृत की गई हैं यह भी ठीक है। किन्तु दूसरी दो गाथाओंमें से यद्यपि प्रथम गाथा सिद्धसेनके सन्मतितर्क की है किन्तु उसके साथवाली दूसरी गाथा गोमट्टसार कर्मकाण्डके सिवाय अन्यत्र नहीं मिलती। फिर भी धर्मरत्नाकर में अमृत चन्द्रके पद्योंको उद्धृत देखकर यही माननेके लिए विवश होना पड़ता है कि गोमट्टसारमें भी वह गाथा कहींसे संगृहीत की गई होगी। अथवा यह भी संभव है कि गोमट्टसारमें उक्त दूसरी दोनों गाथाएं अमृतचन्द्रकी प्रवचनसार टीकासे ही ली गई हों क्योंकि वह एक संग्रह ग्रन्थ है। और जब उसकी रचना अमृतचन्द्र के पश्चात् हुई है तो ऐसा होना असंभव नहीं है।
४. आचार्य अमितगतिने अपना श्रावकाचार भी धर्मरत्नाकर के समय के लगभग रचा है । अतः हमने यह जाननेके लिए कि अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपायका उसपर कुछ प्रभाव है या नहीं, उसका तुलनात्मक अध्ययन किया तो हम इस परिणामपर पहुँचे कि अमितगतिने पुरुषार्थसिद्धयुपाय देखा है। नीचे हम अपने मतके समर्थनमें कुछ प्रमाण उपस्थित कर देना उचित समझते हैं
आचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारके पांचवे अध्यायसे श्रावकों के व्रतों का कथन प्रारम्भ किया है। उन्होंने पांच उदुम्बर और तीन मकार के साथ रात्रि भोजनको भी त्याज्य बतलाया है। अमृतचन्द्राचार्यने पाँच उदुम्बर और तीन मकारको त्याज्य बतलाकर पाँच अणुब्रतोंके पश्चात् अहिंसाणुव्रत की पुष्टिके रूप में रात्रिभोजनके त्यागपर जोर दिया है । और सोमदेवने भी अपने उपासकाचारमें अहिंसाणुव्रतके कथनमें केवल एक श्लोकके द्वारा अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिये और मूलव्रतोंकी विशुद्धिके लिये रात्रि भोजन का त्याग आवश्यक बतलाया है और रत्नकरंड श्रावकाचारमें तो रात्रि भोजन त्याग प्रतिमाओंमें सम्मलित है। इस तरह रात्रि भोजन त्याग को दिये जाने वाले उत्तरोत्तर महत्त्वकी दृष्टिसे सबसे प्रथम रत्नकरंड श्रावकाचार का नम्वर आता है । उसके पश्चात् पुरुषार्थसिद्धयुपाय का नम्बर आता है। और उसके पश्चात् सोमदेवके उपासकाचारका नम्बर आता है। और पश्चात् अमितगतिके श्रावकाचार का नम्बर आता है । अतः पुरुषार्थसि० न केवल अमितगतिके श्रावकाचारसे किन्तु सोमदेवके उपासकाचारसे भी पूर्वका होना चाहिये । १, 'मद्यमांस-मधु-रात्रिभोजनं क्षीरवृक्षफलवर्जनं त्रिधा । कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते ब्रतम् ।।१।।
-अमि०, श्रा०, अ० ५। २. 'अहिंसावतरक्षार्थ मूलव्रतविशुद्धये । निशायाँ वर्जयेद् भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ॥'
-सोम०, उ०, श्लोक ३२५ ।