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अध्यात्म-विषयक टीका - साहित्य : १७९
३. पं० परमानन्दजीने' प्रकट किया है कि आचार्य जयसेनके धर्मरत्नाकरमें आचार्य अमृतचन्द्रके पुरुषार्थ सिद्धयुपायके बहुत से पद्य उद्धृत हैं । और ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन व्यावरके शास्त्र भण्डार की एक प्रतिमें उसका रचनाकाल वि० सं० १०५५ दिया है । अतः अमृतचन्द्र वि० सं० १०५५ से पहले हो गये हैं ।
अमृतचन्द्रसूरिने प्रवचनसारकी टीकामें चार गाथाएं उद्धृत की हैं । 'णिद्धा गिद्धेण' और 'णिद्धस्स णिद्धेण' ये दो गाथाएं ( गा० २।७४ की) टीकामें क्रमसे एक साथ उद्धृत हैं । और 'जावदिया वयणवहा' आदि तथा 'परसमयाणं वयणं' आदि दो गाथाएँ ' तदुक्तम्' करके क्रमसे एक साथ टीकाके अन्त में ( पृ० ३७२ ) उद्धृत हैं । पहलेकी दोनों गाथाएं गोमट्टसार जीवकाण्डमें क्रमसे ६१२ तथा ६१४ नम्बरकी गाथाएँ हैं । और दूसरी दो गाथाएँ कर्मकाण्ड गोमट्टसारकी क्रमसे ८९४ और ८९५ नम्बर की गाथाएँ हैं । दूसरी दो गाथाओंके सम्बन्धमें डा० र उपाध्येने लिखा है कि चूंकि गो० कर्मकाण्डमें वे दोनों गाथाएँ उसी क्रमसे पाई जाती हैं और उनकी शाब्दिक समानता भी है अतः इन दोनों बातोंको देखकर यह सुझाव देने का लोभ होता है कि अमृतचन्द्रने उन्हें गोमट्टसारसे लिया होगा । किन्तु गोमसार एक संग्रह ग्रन्थ है । और इसलिए इन गाथाओंके धवला और जय धवलामें पाये जाने की संभावना है । इन दोनों में से पहली 'जावदिया वयणवहा' आदि गाथा सिद्धसेनके सन्मतितर्क ( ३. ४७ ) में भी पाई जाती है । किन्तु डाँ० उपाध्येने लिखा है कि यद्यपि अमृतचन्द्र सिद्धसेन के सन्मतितर्कसे परिचित थे किन्तु नीचे लिखे कारणोंसे उन्होंने यह गाथा उससे उद्धृत नहीं की है। प्रथम तो, सिद्धसेनकी गाथाका रूप महाराष्ट्री है जबकि अमृतचन्द्रके द्वारा उद्धृतरूप सौरसेनी है । दूसरे अमृतचन्द्र ने दोनों गाथाओंको एक साथ उद्धृत किया है जबकि सिद्धसेनके ग्रथमें उनमें से एक ही पाई जाती है । अतः डॉ० उपाध्येने अमृतचन्द्र का समय ईसाकी दसवीं शताब्दीके लगभग माना है ।
पं० परमानन्दजीने अपने लेखमें डॉ० उपाध्येके उक्त मत की आलोचना भी की है जो उचित ही है क्योंकि जब वि० सं० १०५५ में बने हुए ग्रन्थ में आचार्य अमृतचन्द्र के पद्य उद्धृत हैं तो अमृतचन्द्र विक्रमकी ११वीं सदीके पूर्वार्ध में रच गये गोमट्टसारसे पद्य कैसे उद्धृत कर सकते हैं । किन्तु प्रवचनसारकी प्रस्तावना लिखते समय डॉ० उपाध्येके सामने धर्मरत्नाकर वाली बात नहीं थी । तथा अमृतचन्द्रके द्वारा प्रवचनसारको टीकामें उद्धृत उक्त चार गाथाओंमेंसे
१. अनेकान्त, वर्ष ८, पृ० १७३ १७५ तथा २०० - २०३ ।
२.
प्रव० सा०, की प्रस्ता०, पृ० १०० - १०१ ।