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१७६ : जैनसाहित्यका इतिहास
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्च
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥५॥ यह स्पष्ट हैं कि मूल समयसारसे उसकी टीका गहन है क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्यने जिस तत्त्वका प्रतिपादन बड़ी सरल रीतिसे किया है, अमृतचन्द्रचार्यने उसीका विवेचन अपने समयकी पाण्डित्यपूर्ण दार्शनिक शैलीमें किया है और इस तरहसे उन्होंने कुन्दकुन्दके द्वारा प्रतिपादित अध्यात्मको दार्शनिक शैलीमें अवतरित करके कुन्दकुन्दके पश्चात् विकासको प्राप्त हुए दार्शनिक मन्तव्योंको भी उसमें समन्वित करनेकी चेष्टा की है।
इतना ही नहीं कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें जो तत्त्व निहित थे किन्तु अस्पष्ट थे, उन्हें भी उन्होंने स्पष्ट करके जैनतत्त्वज्ञानको समृद्ध बनाया है।
विशेषताएं-यह पहले लिख आये हैं कि अमृतचन्द्रने ही समयसारको अवान्तर विभागोंमें विभाजित किया है। इतना ही नहीं, किन्तु समयपाहुडको समयसार नाम भी उनका ही दिया हुआ है; क्यों क उन्होंने अपनी टीकाके आरम्भमें 'नमःसमयसाराय' तथा 'समयसार व्याख्ययवानुभूतेः' लिखकर समयसार संज्ञा दी है और इसी नामसे वह सर्वत्र ख्यात भी है।
उन्होंने इसे एक नाटकका रूप दिया है । और नाटककी तरह ही इसे अंकोंमें विभाजित किय है। प्रथम अंकसे पहलेके आरम्भिक भागको 'पूर्वरंग संज्ञा दी है । तथा जैसे नाटकमें पात्रोंका निष्क्रमण और प्रवेश दिखाया जाता है वैसे ही इसमें भी दिखाया गया है। प्रथम अंक जीवाजीवाधिकारमें जीवको अजीवसे भिन्न बतलाया गया है। अतः अन्तमें लिखा है-'जीवा-जीवी पृथग्भूत्वा निष्क्रान्तो' अर्थात् जीव और अजीव जुदे-जुदे होकर चले गये। और दूसरे कर्तृ-कर्म अधिकारके आरंम्भमें लिखा है-'जीव और अजीव ही कर्ता और कर्मका वेष धारण करके प्रवेश करते हैं। तथा अन्तमें लिखा है-'जीव और अजीव कर्ता और कर्मका वेष छोड़कर निकल गये । तीसरे पुण्य पाप अधिकारके आदिमें लिखा है-'एक ही कर्म पुण्य और पापके रूप में दो पात्रोंका वेष धारण करके प्रवेश करता है।' और अन्तमें लिखा है-पुण्य और पापके रूपसे दो पात्रोंका वेष धारण करनेवाला कर्म एक पात्र रूप होकर निकल गया। अर्थात् कर्ममें पुण्य पापका भेद मिथ्या है । दोनों में कोई अन्तर नहीं है। इसी तरह आश्रव, संवर, निर्जरा बन्ध और मोक्ष अधिकारमें उन-उन तत्त्वोंको प्रवेश कराया और निकाला है।
यथार्थमें यह संसार एक रंग-मंच है जिसपर जीव और अजीव नाना रूप