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________________ अध्यात्म-विषयक टीका-माहित्य : १७७ धारण करके अभिनय कर रहे हैं। सांख्यकारिकामें प्रकृतिको नर्तकी बतलाया है और पुरुषको दर्शक । इसी तरह अमृतचन्द्रने भी इस संसारको रंगभूमि मानकर प्रकृतिके स्थानापन्न पुद्गलको ही उसका सूत्रधार बतलाते हुए लिखा है कि इस अनादि महान् अविवेकपूर्ण नाटकमें वर्णादिमान् पुद्गल ही नटरूपसे आचरण करता है । यह जीव तो शुद्ध चैतन्यरूप धातुमय है । अमृतचन्द्राचार्यने अपनी तीनों टीकाओं से प्रवचनसार की टीकामें केवल चार गाथाएँ उद्धृत की हैं । पञ्चास्तिकायकी' टीकामें भी चार गाथाएँ उद्धृत की हैं और समयसारकी टीकामें तीन गाथाएं उद्धृत की है। ये तीनों गाथाएँ जयसेनाचार्यने भी अपनी टीकामें उद्धृत की है। इनमेंसे इन्होंने दो गाथाएँ 'उक्तञ्च व्यवहारसूत्रे' लिखकर उद्धृत की हैं जो इस प्रकार हैं अपडिकमणं अपरिसरणं अप्पडिहारो आधरणा चेव । अणियत्ती य अणिदा अगरुहाऽसोहीय विसकुंभौ ॥१॥ पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । जिंदा गरुहा सोही अट्टविहो अमयकुंभो दु ॥२॥ ये दोनों गाथाएं उन्होंने कुन्दकुन्दाचार्यकी आगेकी गाथाओंकी उत्थानिकाके रूपमें शङ्काके साथ उपस्थित की है। शङ्काकार कहता है कि प्रतिक्रमण आदिके विना अपराध-विशुद्धि नहीं होती। अतः प्रतिक्रमणादिका न करना विषकुम्भ है और करना अमृतकुम्भ है। इसीके समर्थनमें वे दो गाथाएं अमृतचन्द्रने उद्धत की है जो उनके कथनानुसार व्यवहारसूत्रकी हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें व्यवहारसूत्र नामका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है किन्तु उसमें हमें ये गाथाएँ नहीं मिली। जयसेनने इन्हें 'तथाचोक्तं चिरन्तनप्रायःश्चित्तग्रन्थे' करके उद्ध त किया है, जो बतलाता है कि व्यवहारसूत्र प्राचीन प्रायश्चित्तग्रन्थ था। आगे कुन्दकुन्दने उक्त उद्धृत गाथाओंके ठीक विपरीत कथन किया है और बतलाया है कि प्रतिक्रमण आदि करना विषकुम्भ और न करना अमृत कुम्भ है, उसका खुलासा अमृतचन्द्रने आत्मख्यातिमें किया है । कुन्दकुन्दकी गाथाएं इस प्रकार हैं१. 'रंगस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् । पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥५९॥-सां० का० । २. 'अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान् नटति पुद्गल एव नान्यः । रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ॥४४॥ स० प्रा० गा० ६८ । ३. प्रव० सा० टी०, पृ० २२७-२२८, ३७२ । ४. पञ्चा० टी०, पृ० २१२ तथा २५०-२५१ । १२
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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