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________________ अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : १७५ इसके सिवाय गणिजीने' अमृतचन्द्रको मूल संघका अनुयायी लिखा है। तब वह काष्ठासंघी आचार्यकृत ढाढसी गाथाओंके कर्ता कैसे हो सकते हैं । हमारे विचारसे तो गणिजी का उक्त उल्लेख भ्रमपूर्ण ही है, उसका समर्थन उनके अन्य उल्लेखोंसे भी होता है। कुन्दकुन्दकी गाथाओंको उन्होंने अमृतचन्द्रकी लिख दिया है और अमृतचन्द्रकी समयसार टीकामें उद्धृत एक गाथाको कुन्द-कुन्दकी लिख दिया है । अतः उनके उल्लेखोंके आधारपर अमृतचन्द्रको किसी प्राकृत ग्रन्थका रचयिता नहीं माना जा सकता। शैली-टीकाकार अमृतचन्द्राचार्यकी शैलीका प्राञ्जल रूप समयसारकी टीकामें देखनेको मिलता है। उन्होंने गाथाके शब्दोंका व्याख्यान न करके उसमें निहित आशयको ही अपने परिष्कृत गद्य पद्यात्मक टीकाके द्वारा व्यक्त किया है। उनकी भाषा भावोंके अनुरूप है । उसमें कृत्रिमताकी गंध नहीं है । अध्यात्म विषयक उनका पाण्डित्य जितना गम्भीर और तलस्पर्शी है, उसको व्यक्त करने के लिये उनकी भाषा भी उसीके अनुरूप स्वाभाविक धाराके रूपमें प्रवाहित होती है। उनकी टीकामें आगत पद्य, जो समयसार कलशके नामसे बहु प्रचरित हैं, उनकी सरस सुवोध कवित्व शक्तिके जाज्वल्यमान उदाहरण हैं। उनकी रचना इतनी सरस है कि भावोंको हृदयंगम किये बिना भी उसके पाठमें आनन्द मिलता है । सचमुच में अमृतचन्द्र आध्यत्मिक कवियोंके मुकुटमणि हैं । उनके पद्य उतने दुरुह नहीं हैं जितनी दुरुह उनकी गद्य है। किन्तु दोनोंही प्रकारकी रचनाओंमें एकसा सौष्ठव पाया जाता है। उदाहरणके रूपमें यहाँ कुछ अंश दिया जाता है____'इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा ममस्तविपक्षक्षोदक्षमातिनिस्तुषयुक्तयवलम्बनजन्मा निर्मलविज्ञानधनान्तनिमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतशुद्धात्मतत्त्वानुशासनजन्मा अनवरतस्यन्दिसुन्दरनन्दमुद्रितामन्दसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कमनापि मश्चात्मनः स्वोविभवस्तेन समस्तेनाप्य यमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेऽहमिति बद्धव्यवसायोऽस्मि ।' यह समयसारकी गाथा पांचके पूर्वार्द्ध-तं एयत्तविभत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण की व्याख्या है । अब एक पद्यका नमूना भी देखिये उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाडू जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । १. 'अमृताचन्द्राचार्यस्य मूलसंघ यूथ्यत्वेन'-यु० प्र० टी०, ४-३१ । २. 'यदुक्तं समयसारे कुन्दकुन्दाचार्येण'--'जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुहय' । वही, पृ० १५ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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