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________________ १७४ : जैनसाहित्यका इतिहास संकलन करके उसे समयसार कलश संज्ञा देदी है। अमृतचन्द्रकी उक्त पांचों रचनाएं सुललित सुन्दर संस्कृतमें है । कुन्दकुन्दाचार्यके प्राकृत भाषामें निबद्ध ग्रन्थोंकी टीका रचनेसे यह तो स्पष्ट है कि अमृतचन्द्र प्राकृत भाषाके भी विद्वान थे। किन्तु उन्होंने प्राकृतमें भी ग्रन्थरचनाकी हो ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु डॉ० ए० एन० उपाध्येने लिखा है कि समयसार टीकाकी कुछ प्रतियोंके अन्तमें एक प्राकृत गाथा पाई जाती है जो संभवतया अमृतचन्द्र की रची हुई है। तथा मेघविजय गणीने कुछ प्राकृत गाथाओंको अमृतचन्द्रकी बतलाया है जो उनके द्वारा प्राकृतमें रचित श्रावकाचारकी बतलाई गई हैं।' ___मेघविजयगणिने अपने युक्ति प्रबोष नाटककी संस्कृत टीकामें अमृतचन्द्रके नामसे पाँच गाथाओंका उल्लेख किया है यह ठीक है। किन्तु उनमेंसे चार गाथाएं कुन्दकुन्दके समयसार और प्रवचनसार की है । गणिजीने मूलग्रन्थ और उसकी टीकाको एक ग्रन्थ मानकर उसका कर्ता कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र दोनोंको बतलाया है । श्रावकाचारके नामसे जो संस्कृत पद्य उद्धृत किये गये हैं वे सब पुरुषार्थ सिद्धयुपायके हैं। केवल एक गाथा ऐसी है जो ढाढसो गाथाओंमें पाई जाती है। किन्तु गणिजीने उसे 'इतिहासे, श्रावकाचारे अमृतचन्द्रोऽप्याह' कहकर उद्धत किया है । उस गाथामें कहा है-'कोई भी संघ, चाहे वह काष्ठा संघ हो मूलसंघ हो या निष्पिच्छ संघ हो, नहीं तारता। आत्मा ही आत्माको तारता है, अतः आत्माका ध्यान करना चाहिये ।' ढाढसी गाथाओंमें इस गाथाकी स्थिति भी ऐसी प्रतीत नहीं होती जिसपरसे यह संदेह किया जा सके कि उक्त गाथा वहाँ प्रक्षिप्त है। फिर गणिजोके द्वारा उसे श्रावकाचारकी बतलाना भी विचित्र है । गणिजीके पूर्ववर्ती श्री श्रुतसागरजीने अपनी षट्प्राभृत ठीका (पृ० १२)में भी एक गाथा उदृतकी है और लिखा है-'उक्तं च 'ढाढसी गाथासु ।' अतः यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन ढाढसी गाथाओंकी सिद्धि श्रावकाचारके नामसे कभी थी, न उनका विषय श्रावकाचार रूप ही है। १. प्रव० सा० की प्रस्ता०, पृ० ९८ । २. 'समयप्राभृतसूत्र वृत्ति समुदाय ____ रूपस्य समयसारस्य कुन्दकुन्दाचार्य अमृतचन्द्रचार्याभ्यां प्रणीतस्य ग्रन्थस् : -यु० प्र० टी०, पृ० ३० । २. 'संघो को वि न तारइ कट्ठो मूलो तहेव णिप्पिच्छो। अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा हु झादवो ॥२०॥ ढा० गा० (तत्त्वानु० सं०, पृ० १६४ )।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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