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________________ अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : १७३ आगमकी यह व्याख्या अपनी शक्तिसे वस्तु तत्त्वको सूचित करनेवाले शब्दोंके द्वारा की गई है। अपने स्वरूपमें लीन अमृतचन्द्रके लिये कुछ भी करणीय नहीं है । अपने एक ग्रन्थके' अन्तमें लिखा है-'तरह-तरहके वर्णोसे पद बन गये । पदोंसे वाक्य बन गये और वाक्योंसे यह पवित्र शास्त्र बन गया। मैंने कुछ भी नहीं किया।' कुन्दकुन्दके समयसारमें जो आत्माको परवस्तुका अकर्ता बतलाया है, उसीका अनुसरण करते हुए अमृतचन्द्रने अपनी कृतियोंमेंसे अपने कर्तृत्वके भावका परिहार उक्त शब्दोंमें किया है। जो इस तरह अपनी कृतियोंका कर्ता भी अपनेको नहीं बतलाता उससे यह आशा कैसे की जा सकती है कि वह अपने सांसारिक सम्बन्धोंके विषयमें कुछ प्रकट करेगा। पं० आशाधरने अनगार धर्मामृतकी टीकामें अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख ठक्कुर पदके साथ किया है। ठक्कुरका हिन्दी रूप ठाकुर है । जागीरदारों और ओहदेदारोंको ठाकुर कहते हैं। वे प्रायः क्षत्रिय होते हैं । कुछ ब्राह्मण भी ठाकुर कहे जाते हैं। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अमृतचन्द्रसूरि कौन ठाकुर थे। फिर भी इससे व्यक्त होता है कि वे किसी सम्मानित कुलके थे। इसके सिवाय उनके सम्बन्धमें और कुछ भी ज्ञात नहीं होता। रचनाएं-अमृतचन्द्रकी पाँच रचनाएँ वर्तमानमें उपलब्ध हैं । १ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय इसका दूसरा नाम 'जिनप्रवचनरहस्यकोश' भी है। इसमें श्रावकाचारका वर्णन है । संस्कृत भाषामें आर्याछन्दमें इसकी रचना की गई है । २ दूसरी रचना है तत्त्वार्थसार । यह तत्त्वार्थसूत्रका एक श्लोकबद्ध रूप है। इन दो ग्रन्थोंके सिवाय तीन टीका ग्रन्थ हैं। समयसारकी टीकाका नाम आत्मख्याति है । प्रवचनसारकी टीकाका नाम तत्त्वदीपिका है। और पञ्चास्तिकायकी टीकाका नाम तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति है। इन तीनों टीकाओंके अन्तमें अमृतचन्द्रने अपना नाम दिया है। इनके सिवाय समयसार कलश नामसे भी अमृतचन्द्रकी एक कृति मिलती है और उसपर शुभचन्द्रकृत टीका भी है। किन्तु वास्तवमें वह कोई स्वतंत्र कृति नहीं है किन्तु समयसारको टीकामें आगत पद्योंका एक संकलनमात्र है। वे पद्य अति सुन्दर और अध्यात्मरससे भरे हुए हैं। इसलिये किसीने उनका पृथक् १. 'वणः कृतानि चित्रः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि । वाक्यः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥'-पु० सि० । २. 'एतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृतचन्द्रसूरिविरचितसमयसारटीकायां दृष्टव्यम् ।' -अन० ५० टी० पृ० ५८८
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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