________________
जैनसाहित्यका इतिहास
द्वितीय भाग
तृतीय अध्याय अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य
द्वितीय अध्यायमें अध्यात्म-विषयक मूल-साहित्यका ईतिवृत्त निबद्ध किया जा चुका है। इस अध्यायमें अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्यका प्रतिपादन किया जायगा।
आचार्य अमृतचन्द्रसूरि टीकाकार होते हुए भी मूलग्रन्थ रचनेकी क्षमतासे युक्त हैं । समयसारकी टीकामें उन्होंने 'कलश' नामसे जिन पद्योंको ग्रथित किया है उत्तरकालमें उन पद्योंका संकलन 'समयसार-कलश' नामसे ग्रन्थरूपमें अभिहित हुआ। अतएव अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य प्रमेयकी दृष्टिसे उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना मूल अध्यात्म-साहित्य ।
इस अध्यायमें टीका-साहित्यके अतिरिक्त ऐसे लघुकाय ग्रन्थोंका भी विवेचन रहेगा, जो उत्तरकालमें उक्त साहित्यके आधारपर लिखे गये हैं । टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि
कुन्दकुन्दके समयसार, और पञ्चास्तिकायके टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि कुन्दकुन्दाचार्यके सफल व्याख्याता और अध्यात्मवेत्ता थे । इनकी टीकाएँ ही इनकी विद्वत्ता, वाग्मिता और प्राञ्जल शैलीकी परिचायक हैं। इन्होंने अपनी किसी भी कृतिमें अपने सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा । अतः वे कब हुए और उनके गुरु आदि कौन थे, यह सब एक तरहसे अज्ञात है। केवल उनकी कृतियोंसे ही उनके व्यक्तित्वको समझा जा सकता है।
जैनपरम्पराके आध्यात्मिक विद्वानोंमें कुन्दकुन्दके पश्चात् यदि किसीका नाम आदरके साथ लिया जा सकता है तो वे अमृतचन्द्र ही हैं। अतः उन्होंने अपनी टोकाओंके अन्तमें भी अपने उसी अध्यात्मभावका ही परिचय देते हुए लिखा है१. 'स्वशक्ति संसूचित वस्तुतत्त्वाख्या कृतेयं समयस्य शब्दः । स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिददस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ॥'
-समयसार टीका तथा पञ्चा० टी० के अन्तमें यह पद्य है ।