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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १७१ अन्तिम दोहेमें लिखा है कि संसारके भयसे भीत जोगिचन्द मुनिने अपने सम्बोधनके लिए इन दोहोंको रचा है।
जोइन्दु ओर जोगिचन्द नामोंमें कोई अन्तर नहीं है । तथा परमात्म प्रकाश और योगसारके विषयमें ही समानता नहीं हैं, किन्तु पदों और शब्दोंमें भी समानता है। दोनों ग्रन्थोंके मंगलाचरणोंके कुछ अन्तिम चरण एक हैं यथा
जे जाया झाणग्गियए कम्मकलंक डहेवि । णिच्च णिरंजणणाणमय ते परमप्प णवेवि ॥१॥-प० पु० णिम्मलझाण परिठ्ठया कम्मकलंक डहेवि ।
अप्पा लद्धउ जेण परु ते परमप्प णवे वि ॥१॥ यो० सा० । दोनों ग्रन्थोंका प्रारम्भ भी जिस दोहेसे हुआ है उसमें भी समानता है
गउ संसार बसंताहं सामिय कालु अणंतु । पर मई किं पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु ॥९॥ १० प्र० कालु अणाइ अणाइ जिउ भव सायरु जि अणंतु ।
मिच्छा दंसण मोहियऊ ण वि सुह दुक्ख जि पत्तु ॥४॥ इस तरहकी समानता बहुतायतसे पाई जाती है । अतः योगसार भी अवश्य ही परमात्म प्रकाशके कर्ताकी ही कृति है।