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१७० : जैनसाहित्यका इतिहास निर्वाण प्राप्त करेगा। किन्तु यदि पर पदार्थोंको आत्मा मानेगा तो संसारमें भटकेगा ॥१२॥ कुन्दकुन्दने' कर्मविमुक्त आत्माको परमात्मा बतलाते हुए उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख और बुद्ध कहा है। योगसारमें भी उसके जिन, बुद्ध, शिव आदि नाम बतलाये हैं । जोइन्दुने भी कुन्दकुन्दकी तरह निश्चय और व्यवहार नयोंके द्वारा आत्माका कथन किया है । योगसारमें दोनों दृष्टियाँ विशेष रूपसे मिलती हैं।
लिखा है- श्रुतकेवलीने कहा है कि देव न देवालयमें है और न तीर्थोंमें । देव तो शरीर रूपी देवालयमें है यह निश्चयसे जानो ॥४२॥ देव तो शरीर रूपी देवालयमें है और लोग उसे देवालयोंमें देखते हैं। यह देखकर मुझे हंसी आती
है ॥४३॥
योगसारके अध्ययनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि परमात्म प्रकाशकी तरह उसका विषय क्रमबद्ध नहीं है किन्तु यह एक संग्रह जैसा प्रतीत होता है । इसमें एक दोहा आता है
विरला जाणहि जत्तु बुह विरला णिसुणहिं तत्तु ।
विरला झायहिं तत्तु जिय विरला धारहिं तत्तु ॥६६॥ 'विरले जन तत्त्वको जानते हैं, विरले ही तत्त्वको सुनते हैं, विरले ही तत्त्वका ध्यान करते हैं और विरले हो तत्त्वको धारण करते हैं। ___इसका पूर्वापर सम्बन्ध वैठाया जा सकता है किन्तु अपने स्थानपर यह फिट नहीं बैठता। इसी दोहेका गाथा रूप कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गा० २७१) में पायाजाता है।ति०प०के सम्बन्ध में पहले विस्तारसे प्रकाश डाला जा चुका है । उसका वर्तमान रूप सन्दिग्ध है। फिर भी उसमें जो भगवान महावीरके निर्वाणसे लेकर एक हजार वर्षकी काल गणना दी है उससे वह विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वकी रचना सिद्ध नहीं होती है। ऐसी स्थितिमें जोइन्दु के परमात्मप्रकाशको समाधिशतक और तिपण्णत्तिके मध्यकालकी रचना मानना चाहिये । संभव है कि जो इन्दु पूज्यपादके लघुसमकालीन हों अथवा उनके पश्चात् तुरन्त ही हुए हों । अतः जोइन्दु विक्रमकी छठी शताब्दीके ग्रन्थकार होने चाहिये ।
१. 'णाणी सिव परमेट्ठी पन्वण्हु विण्हु चउमुहो बुद्धो । अप्पोविय परमप्पो कम्म
विमुक्को य होइ फुद्रो ॥१४९॥।-भा० प्रा० । णिम्मल णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बद्ध सिव संतु । सो परमप्पा जिण भणिउ एहउ जाणि णि भंतु ॥९॥ यो० सा०।