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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १६९ कुन्दकुन्दाचार्यकी तरह ही जोइन्दुने भी लिखा है कि जो जीव पुण्य और पापको समान नहीं मानता वह मोहके वशीभूत होकर चिरकालतक भ्रमण करता है । इतना ही नहीं, किन्तु जोइन्दुने उस पापको अच्छा बतलाया है जो जीवको दुःख देकर उसे मोक्षकी तरफ लगाता है ॥५६॥ इसी प्रकरणमें पुण्यकी बुराई करनेवाली एक गाथा (२।६०) आती है जो तिलोय पण्णति (९।५२)में भी है । इससे आगेवाले दोहेमें आर्य शान्तिका मत आया है जिसमें लिखा है कि देव, शास्त्र और मुनिवरोंकी भक्तिसे पुण्य होता है, कर्मोंका क्षय नहीं होता ऐसा आर्य शान्ति कहते हैं ॥६१।। कुन्दकुन्दकी तरह ही जोइन्दुने भी वन्दना, निन्दा, प्रतिक्रमण आदिको पुण्यका कारण बतलाकर एक मात्र शुद्ध भावको ही उपादेय बतलाया है । लिखा है-शुद्धोपयोगीके ही संयम शील और तप होता है, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होता है तथा उसीके कोका क्षय होता है अतः शुद्धोपयोग ही प्रधान है ॥६७॥ अरे जीव ! जहाँ तेरा जी चाहे वहाँ जा और जो तेरी इच्छा हो, वह कर । किन्तु जब तक चित्तकी शुद्धि नहीं है, मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता ॥७॥ ___ आत्म ज्ञानसे विहीन योगियोंका तीर्थ पर्यटन, चेला चेलियोंका पालन पोषण सब निरर्थक है । जो जिनलिंग धारण करके भी परिग्रह रखते हैं उन्हें वमनका खानेवाला कहा है ॥९१॥ भिक्षामें मिष्ट भोजनकी कामना रखनेवाले नग्न भेषधारी मुनियोंकी भी भर्त्सना की है ॥१११-२।।। अन्तमें विषयोंमें आसक्तिकी बुराई बतलाकर आत्माका ध्यान करनेपर जोर दिया है। दोनों अधिकारोंका अन्तिम भाग अध्यात्मपूर्ण उपदेशोंसे भरा हुआ है। योगसार—यह एक १०८ दोहोंका, जिनमें एक चौपाई और दो सोरठा भी सम्मिलित है, एक छोटा सुन्दर ग्रन्थ है। इसे परमात्म प्रकाशका सार कह सकते है, क्योंकि जो परमात्म प्रकाशका विषय है वही योगसारका भी विषय है । इसके आरम्भमें भी आत्माके उक्त तीन प्रकारोंका कथन उसी रीतिसे किया गया है और लिखा है कि यदि जीव तू आत्माको आत्मा समझेगा तो .-- ---- - -- १. 'ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसोत्ति पुण्ण पावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो । प्रव० सा० १-७७ । जो ण वि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ । सो चिरु दुक्ख सहत जिय मोहिं हिडइ लोइ-प० प्र० २।५५ । २. योगसारका प्रकाशन भी हिन्दी अनुवादके साथ रायचन्द्र जैनशास्त्र मालासे हुआ है। परमात्म प्रकाशके अन्तमें उसीके साथ इसे जोड़ दिया गया है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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