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________________ १६८ : जेनसाहित्यका इतिहास शताब्दीके अन्तिम पादसे कुछ पूर्व है। और चण्डके प्राकृत लक्षणके व्यवस्थित रूपका समय ईसाकी सातवीं शताब्दीके लगभग अनुमान किया गया है। अतः डॉ० उपाध्येने जोइन्दुका समय ईसाकी छठी शताब्दी माना है । ___किन्तु परमात्म प्रकाशकी एक गाथा (२।६०) तिलोय पण्णत्ति में (९-५८) ज्योंकी त्यों पाई जाती है केवल अन्तिम चरणमें थोड़ा अन्तर है ।यथा पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ मोहो । मइ मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ ॥६०॥-प० प्र० ति० प० में अन्तिम चरण है 'तम्हा पुण्णो वि वज्जेज्जो' । दोनोंके अभिप्रायमें कोई अन्तर नहीं है। प० प्र० के दूसरे अधिकारमें उक्त गाथा प्रकरण संगत है । ५३ वें दोहे से ६४ तक पुण्य और पाप दोनोंको त्याज्य बतलाया है । उसीके मध्यमें उक्त गाथा है । कुल ५ गाथाएँ परमात्मप्रकाशमें हैं और वे सब अपभ्रंशमें नहीं हैं । केवल दोहोंकी भाषा अपभ्रंश है । उधर ति० ५० नोवां अध्यायमें कुन्दकुन्दके समयसार प्रवचनसारकी अनेक गाथाएँ भरी हुई हैं। उन्हींके बीचमें उक्त गाथा भी है । अतः उक्त गाथा प० प्र०से ही ति० प०में ली गई प्रतीत होती है। प्रवचनसार गाथा १-७७का रूपान्तर पर प्रकाश दोहा (१-५५) के रूपमें वर्तमान है। उक्त ६०वीं गाथा भी प्रव० ( १७४-७५ ) का आशय लेकर ही बनाई गई जान पड़ती है । उन गाथाओंमें कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है कि यदि पुण्यकर्म होता है तो वह देव पर्यन्त प्राणियोंको विषयोंकी तृष्णा उत्पन्न करता है। उस तृष्णाके वशीभूत हुए वे प्राणी तृष्णासे दुखी होकर जीवनपर्यन्त विषयसुखको भोगते रहते हैं और उसीकी इच्छा करते हैं। इसी बातको जोइन्दुने प० प्र०में बड़े सुन्दर ढंगसे उक्त गाथामें कहा है कि पुण्यसे वैभव मिलता है । वैभव पाकर मद होता है मदसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और बुद्धिके भ्रष्ट होनेपर जीव पापका संचय करता है। ___ अतः उक्त गाथा जोइन्दुकृत होनी चाहिये । ऐसी स्थितिमें प्रवचनसार ति० प०से पूर्वका ठहरता है। उक्त दोहेके आगे अशरण और एकत्व भावनासे सम्बद्ध (६८-७०) तीन दोहें हैं। आगे एक दोहे ( ९८ ) के द्वारा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंके नाम गिनाये हैं। उससे आगे दोहा (९९-१०३) द्वारा सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म साम्पराय संयमका स्वरूप बतलाया है। यथाख्यातका स्वरूप छूट गया है। अन्तमें कहा है कि जो सिद्ध हो चुके हैं, जो सिद्ध होंगे और जो वर्तमानमें हो रहे हैं वे सब आत्मदर्शनसे ही सिद्ध हुए हैं ॥१०७॥
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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