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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १६७ भाषाएं भी (पर० प्र० १२७६-७७ ) कुन्दकुन्दके मो० पा० (१४-१५ ) में दी गई परिभाषाओं जैसी ही हैं। और ब्रह्मदेवने उक्त दोहोंकी टीकामें मो० पा० की दोनों गाथाओंको उद्धृत भी किया है । इसी तरह और भी गाथाओं और दोहोंमें समानता है । यथा-मो० पा० २४ और प० प्र० ११८६ । मो० पा० ३७ और प० प्र० २।१३ । मो० पा० ५१ और प० प्र० २।१७६-१७७ । आदि । मोक्ख पाहुड़ आदिकी संस्कृत टीकामें श्रुतसागर सूरिने प० प्रकाशके जो दोहे उद्धत किये हैं उससे भी उक्त बात का ही समर्थन होता है। अतः यह स्पष्ट है कि जोइन्दु कुन्दकुन्दके पश्चात् हुए हैं ।
७. पूज्यपादके समाधि शतक और परमात्म प्रकाशके तुलनात्मक अध्ययनसे दोनोंमें घनिष्ठ समानता प्रतीत होती है। समानताके निदर्शक कुछ उल्लेख इस प्रकार है-स० श० ४-५ और प० प्र० १११-१४; स० श० ३१ और प० प्र० २११७५, १११२३ २; स० श० ६४-६६ और प० प्र० २११७८-१८०; स० श० ७० और प० प्र० १८० । दोनों ग्रन्थोंमें गहरा विचार साम्य भी है किन्तु शैलीमें अन्तर है । वैयाकरण होनेके कारण पूज्यपादके उद्गार संक्षिप्त, भाषा परिमार्जित और भाव व्यवस्थित हैं। किन्तु योगीन्दुने उसी बातको विस्तारसे और सरल करके कहा है । फिर भी उनके कुछ दोहे समाधि शतकके श्लोकोंके रूपान्तर जैसे प्रतीत होते हैं । यथा
यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥३१॥-स० श० । जो परमप्पा णाणम उ सो हउँ देउ अणंतु । जो हउँ सो परमप्पु परु एहउ भावि णिभंतु ॥१७५।।-प० प्र०
जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीणं मन्यते तथा । जीर्णे स्वदेहे ऽप्यात्मानं न जीणं मन्यते बुधः ॥६४।।-स० श० जिण्णि वत्थि जेम बुहु देहु ण मण्णइ जिण्णु । देहि जिण्णि णाणि तह अप्प ण मण्णइ जिण्णु ॥१७९।।-प० प्र०
नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा । नष्ट स्वदेहे ऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ॥६५॥-स० श० वत्थु पण?इ जेम बुहु देहु ण मण्णइ णट्ट ।
ण? देहे णाणि तह अप्पु ण मण्णइ णट्ठ ॥१८०॥ प० प्र० अतः डॉ० उपाध्येने परमात्म प्रकाशको समाधि शतक और चण्डके प्राकृत लक्षणके मध्यकालकी रचना माना है। चूंकि पूज्यपादका समय ईसाकी पाचवीं