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________________ १६६ : जैनसाहित्यका इतिहास तत्त्वसारके रचयिता देवसेनने ही परमात्म प्रकाशका अनुसरण किया जान पड़ता है क्योंकि उन्होंने अपनी अन्य कृतियोंमें भी पूर्वाचार्योका अनुसरण किया है । देवसेनने विक्रम सम्बत् ९९० में (९३३ ई०) में अपना दर्शनसार रचा था। अतः यह निश्चित है कि जोइंदु उससे पहले हो गये हैं। ४. योगसारका ६५ वां दोहा इस प्रकार हैविरला जाणहिं तत्तु बुहु विरला णिसुणहिं तत्तु । विरला झायहिं तत्तु जिय विरला धारहिं तत्तु ।।६५॥ और कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी एक गाथा इस प्रकार हैविरला णिसुणहिं तच्च विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा होदि ॥२७९।। का० अ० अपभ्रंश भाषामें नहीं लिखी गई है । अतः वर्तमानकाल तृतीय पुरुषके बहुवचनके रूप 'णिसुणहि' और 'भावहि' उसमें जबरन घुस गये हैं। किन्तु योगसार में वे ही रूप ठीक हैं क्योंकि उसकी भाषा अपभ्रंश है। दोनों पद्योंका आशय एक है। केवल दोहेको गाथाका रूप दे दिया गया है । और डॉ. उपाध्येके अनुसार का० अ० के रचयिता कुमार ने ही जोइंदुके दोहेको गाथाका रूप दिया है। अतः उन्होंने जोइंदुको कुमारसे प्राचीन माना है। ५. प्राकृत लक्षणके कर्ता चण्डने अपने सूत्र 'यथा तथा अनयोः स्थाने' के उदाहरणमें निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है काल लहेविणु जोइया जिम-जिम मोह गलेइ । तिम-तिम दंसणु लहइ जो णियमें अप्पु मुणेइ ॥ । यह परमात्म प्रकाशके प्रथम अधिकारका ८५ वां दोहा है। दोनों में केवल इतना अन्तर है कि परमात्म प्रकाशमें 'जिम' के स्थानपर 'जिमु' तिमके स्थान पर 'तिमु' तथा 'जो' के स्थान पर 'जिउ' पाठ है । चण्डके समयके बारेमें अनेक मत हैं। उनमेंसे गुणेका मत है कि चण्ड उस समय हुए हैं जब अपभ्रंश भाषा केवल आभीरोंके बोलचाल की ही भाषा नहीं थी बल्कि साहित्यिक भाषा हो चुकी थी । अर्थात् ईसाकी छट्ठी शताब्दीके बादमें । इस प्रकार चण्डके व्याकरणके व्यवस्थित रूपका समय सातवीं शताब्दी रखा जा सकता है। अतः परमात्मप्रकाश उससे प्राचीन होना चाहिये । ६. जो इंदुके परमात्म प्रकाशके तुलनात्मक अध्ययनसे यह स्पष्ट है उनका ग्रन्थ कुन्दकुन्दके मोक्ष प्राभूत और पूज्यपाद के समाधिशतक का ऋणी है । परमात्म प्र० ( १।१२१-४ ) में जो आत्माके तीन प्रकारोंका वर्णन है वह मोक्खपाहुड (४-८) से विल्कुल मिलता है । सभ्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टिकी परि
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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