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________________ १६४ : जेनसाहित्यका इतिहास आत्मा अथवा जीवके स्वरूप और आकारके विषयमें विभिन्न मतोंका निर्देश तथा उन सब मतोंको जैनदृष्टिसे मान्य करते हुए जोइन्दुने लिखा है-कोई जीवको सर्वगत कहते हैं । कोई जड़ कहते हैं । कोई जीवको शरीर प्रमाण कहते हैं और कोई उसे शून्य भी कहते हैं । ५०॥ ये चारों ही कथन ठीक हैं । कर्म बन्धनसे रहित आत्मा केवल ज्ञानके द्वारा लोकालोकको जानता है, इसलिये उसे सर्वगत कहते हैं ॥५२॥ आत्मज्ञानमें लीन जीव इन्द्रिय जनित ज्ञानसे रहित हो जाते हैं इसलिए उन्हें जड़ जानों, क्योंकि जड़ पदार्थ इन्द्रियज्ञानसे रहित होता है ।।५३॥ शरीरके बन्धनसे रहित हुआ शुद्ध जीव अन्तिम शरीर प्रमाण ही रहता है, न वह घटता है और न बढ़ता है अतः उसे जिनेन्द्रदेवने शरीर प्रमाण कहा है ॥५४।। शुद्ध जीव आठों कर्मोसे और अट्टारह दोषोंसे शून्य होता है इसलिए उसे शून्य कहते हैं ॥५५॥ __कुन्दकुन्दने भी प्रवचनसार (१।२६) में इसी प्रकार आत्माको सर्वगत बतलाया है । तथा पञ्चास्ति० (३६) में कहा है कि आत्मा न किसीका कारण है और न कार्य । जोइन्दुने भी (५६) यही बात कही है। तथा जीव और कर्मके सम्बन्धको अनादि बतलाया है । अन्तमें सम्यग्दृष्टिका स्वरूप वतलाते हुए लिखा है-जो आत्माको आत्मा जानता है वह सम्यग्दृष्टि है ॥७६॥ __ इसतरह पहले अधिकारमें आत्माका बहुत ही सरल और सुन्दर वर्णन है । दूसरे अधिकारमें मोक्ष, मोक्षका फल और मोक्षके कारणका कथन किया गया है। प्रथम ग्यारह गाथा पर्यन्त मोक्ष और उसके फलका कथन है। पश्चात् मोक्षके कारणोंका कथन है। जोइंदुने भी कुन्दकुन्दकी तरह ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको मोक्षका कारण बतलाकर उन तीनोंको निश्चय दृष्टिसे आत्म स्वरूप ही बतलाया है (२।१२) । आगे समभावकी बहुत प्रशंसा की है। कुन्दकुन्दाचार्यने मोक्ष प्राभूतमें (२।३१) तथा पूज्यपादने समाधितंत्र (७८) में व्यवहारमें सोनेवालेको आत्म कार्यमें जाग्रत और व्यवहार में जाग्रतको आत्मकार्यमें सुषप्त बतलाया है। किन्तु जोइन्दुने गीताके' एक श्लोका अनुसरणा करते हुए लिखा है कि समस्त प्राणियोंके लिए जो निशा है उसमें योगी जागत है और जिसमें सकल जगत जागता है उसको रात्रि मानकर योगी सोता है - १. 'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मनेः ॥ गी० २-६९ । 'जा णिसि सवलहँ देहियह जोग्गिउ तहिं जग्गेइ । जहिं पुण जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मुणिवि सुवेइ-प० प्र० २।४६ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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