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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १६३ जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सदु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु ण वि णाउ णिरंजणु तासु ॥१९॥ जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु । जासु ण गणु ण झाणु जिय सोजि णिरंजणु जाणु ॥२०॥ अत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अस्थि ण हरिसु विसाउ । अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ॥२१॥ जिसके न वर्ण है, न गंध है, न रस है, न शब्द है, न स्पर्श है, न जन्म है और न मरण है उसका नाम निरंजन है। जिसके न क्रोध है, न मोह है, न मद है, न माया है, न मान है, जिसके न स्थान है, और न ध्यान है उसे निरंजन जानो। जिसके न पुण्य है और न पाप है, और न हषं विषाद है तथा जिसके एक भी दोष नहीं है वही निरंजन परमात्मा है । कुन्दकुन्द आचार्यने भी आत्माको इन सब भावोंसे रहित बतलाया है । किन्तु जोइन्दु योगाभ्यासके साधन प्राणायाम मण्डल और मुद्रा आदिसे भी आत्माको पृथक् बतलाते हुए कहते हैं जासु ण धारण धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु । ___ जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउँ अणंतु ॥२२।। जिस परमात्माके न धारणा है, न ध्येय है, न यंत्र है और न मंत्र है । तथा जिसके न मण्डल है और न मुद्रा है उसे देव (परमात्मा) जानो । बौद्ध महायान सम्प्रदायकी दो शाखाएँ थी-मंत्रयान और वज्रयान । मंत्रयानमें मंत्रपदोंके द्वारा निर्वाणकी प्राप्ति मानी गई है । वज्रयानमें मंत्रों द्वारा तथा वज्र द्वारा निर्वाणका लाभ होता है। मंत्रयान तथा वज्रयानका साहित्य तंत्र कहलाता है। तंत्र साहित्यमें साधनाओंका भी समावेश है। साधनाओंमें मंत्रों मुद्राओं और ध्यानके द्वारा सिद्धियोंके अतिरिक्त सर्वज्ञता तथा निर्वाणके उपाय बताये गये हैं । सम्भवतया जोइन्दुका उक्त कथन तंत्रशास्त्रोंके उक्त साधनोंसे आत्माको भिन्न बतलाना प्रतीत होता है । जैनधर्मके अनुसार आत्मा ही परमात्मा हो जाता है। अतः निश्चयनयसे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है । यही बात कुन्दकुन्दने मोक्ष प्राभूतमें कही है । जोइन्दु ने भी लिग्वा है-'जैसा निर्मल ज्ञानमय देव मुक्ति में निवास करता है वैसा ही पर ब्रह्म शरीरमें निवास करता है अतः दोनोंमें भेद मत कर ॥२६॥ यहाँ यह स्पाट कर देना उचित होगा कि जोइंदुने आत्माके लिये ब्रह्म शब्दका प्रयोग विशेष रूपसे किया है जो उल्लेखनीय है । १. बौ० ध० द०, पृ० १७६-१७७ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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