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________________ १६० : जेनसाहित्यका इतिहास जिणाउ'का अर्थ 'श्रीयोगीन्द्रदेव नामा भगवान्' किया है । जयसेनने समयसारकी टीकामें तथा योगीन्द्रदेवैरप्युक्तम्' करके परमात्मप्रकाश का एक पद्य ( १-६८) उद्धृत किया है। श्रुतसागरने कुन्दकुन्दके चरित्त पाहुड़ (गा० १५ ) की टीकामें 'उक्तं च योगीन्द्रनाम्ना भट्टारकेण' करके परमात्मप्रकाश से एक पद्य (१।१२१) उद्धृत किया है और इसी नामसे वह प्रसिद्ध हुए हैं। एक ग्रन्थ योगसार नामक है। शब्दों तथा भावोंकी समनताके कारण वह भी जोइंदु की रचना माना जाता है। किन्तु उसके अन्तिम पद्यमें ग्रन्थकार कर नाम 'जोगिचन्द' आता है । यथा संसारह भय-भीयएण जोगिचंद मुणिएण । अप्पा संवोहण कया दोहा इक्कमणेण ॥१०८॥ 'जोइंदु का संस्कृत रूपान्तर 'योगीन्दु' होता है जिसका अर्थ होता है 'योगीचन्द्र' । चन्द्रान्त नामोंका अनेक ग्रन्थकारोंने इन्दुके साथ प्रयोग किया है। यथा शुभचन्द्रका शुभेन्दु, प्रभाचन्द्रका प्रभेन्दु । अतः डा० ए० एन० उपाध्ये का वह सुझाव सर्वथा उचित प्रतीत होता है कि परमात्म-प्रकाशके रचयिता का नाम योगीन्द्र नहीं, किन्तु योगीन्दु था । वह नाम योगसार में दिये गये जोगिचंद नामसे एकदम मिलता है । रचनाएं-परम्परासे आगे लिखे ग्रन्थ योगीन्दु रचित कहे जाते हैंपरमात्म-प्रकाश ( अपभ्रंश ), योगसार ( अपभ्रं० ), नौकार श्रावकाचार ( अप० ), अध्यात्म-सन्दोह (सं०), सुभाषित तंत्र (सं०), और तत्त्वार्थटीका (सं.)। इनके सिवाय दोहापाहुड ( अप० ), अमृताशीति (सं.) और निजात्माष्टक (प्राकृत) को भी योगीन्दु के साथ जोड़ा गया है । इनमेंसे अध्यात्मसन्दोह और सुभाषित-तंत्र नामक ग्रन्थोंके सम्बन्धमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं है तथा तत्त्वार्थटीका के रचयिताका नाम योगदेव है। योगदेव योगीन्दु से भिन्न व्यक्ति हैं। टीकाकी प्रशस्तिमें इन्होंने अपनेको ५० बन्धुदेवका शिष्य बतलाया है। डा० उपाध्ये' ने उक्त ग्रन्थोंके कर्तृत्व पर विस्तारसे विचार करके अन्तमें यही निष्कर्ष निकाला है कि जिस परम्पराके आधारपर परमात्म-प्रकाश और योगसारके सिवाय शेष ग्रन्थोंको योगीन्दुरचित कहा जाता है, वह प्रामाणिक नहीं है। अतः वर्तमानमें परमात्म-प्रकाश और योगसार वे दो ग्रन्थ ही जोइंदु रचित सिद्ध होते हैं। १. परमात्म-प्रकाश ( रा० शा० मा०.) की प्रस्तावना, पृ० ५७-६३ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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