________________
द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १५९ यद् बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं यदहं पुनः ।
ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ॥५९।। जिस स्वरूपको समझानेकी मैं इच्छा करता हूँ उसे मैं समझा नहीं सकता । क्योंकि जो मेरा स्वरूप है उसे दूसरा अनुभव नहीं कर सकता। तब मैं दूसरोंको क्या समझाऊं ? आत्मा ही आत्माको संसार में भ्रमण कराता है और आत्मा ही आत्माको निर्वाण प्राप्त कराता है, अतः परमार्थसे आत्माका गुरु आत्मा ही है, दूसरा नहीं है
नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च ।
गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ।।७५।। कुन्दकुन्दाचार्यकी ही तरह पूज्यपाद स्वामीने भी मुक्तिके लिये पापकी तरह पुण्यको और पुण्यबन्धके कारण व्रतोंको भी त्याज्य बतलाया है तथा लिंग और जातिके भी आग्रहको त्यागनेका उपदेश दिया है । यथा
अपुण्यमवतः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥८३॥
x
लिङ्ग देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः । न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताग्रहाः ।।८७॥ जातिदेहाश्रिता दृष्टा देह एवात्मनो भवः ।
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहाः ॥८८॥ इस तरह समाधितंत्रमें शरीरादिसे भिन्न एकमात्र आत्मतत्त्वकी उपासना का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया गया है। प्रत्येक श्लोक एक रत्नकी तरह बहुमूल्य है । साहित्यकी दृष्टिसे भी रचना अनमोल है । जोइंदु-योगीन्दु
जैन-परम्परामें जोइंदु या योगीन्दु एक महान् अध्यात्मवेत्ता हो गये हैं। किन्तु उनकी जीवनीके सम्बन्धमें कोई वर्णन नहीं मिलता। उनके ग्रन्थोंमें भी उनके जीवन तथा स्थानके बारेमें कोई निर्देश नहीं मिलता। उनके द्वारा रचित परमात्म-प्रकाशमें उनका नाम 'जोइंदु' आता है यथा
भावि पणविवि पंचगुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ ।
भट्ट पहायरि विष्णविउ विमलु करेविणु भाउ ॥८॥ अर्थात् शुद्ध भावसे पञ्चपरमेष्ठियोंको नमस्कार कर भट्ट प्रभाकर अपने परिणामोंको निर्मल करके श्री योगीइंदु जिनसे प्रार्थना करता है।
परमात्म-प्रकाशके टीकाकार ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृत टीकामें 'श्री जोइंदु