SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ : जैनसाहित्यका इतिहास आगे भी अविद्या' और संस्कार शब्दोंका प्रयोग किया गया है । बौद्धोंके द्वादशांग प्रतीत्य-समुत्पाद सिद्धान्तका पहला अंग है - अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः । यह उसीका प्रभाव प्रतीत होता है; क्योंकि पूज्यपादके समयमें बौद्धदर्शनका गहरा प्रभाव था । उस समय तक अनेक प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक हो चुके थे । आगे अन्तरात्माका स्वरूप बतलाते हुए आत्माको अतीन्द्रिय और अनिर्देश्य कहा है यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थितः पुनः । अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४॥ आत्माके लिये यह अनिर्देश्य पद भी बौद्धोंके 'स्वलक्षणमनिर्देश्यं' का स्मरण कराता है । परमात्माके स्वरूपको अनुभव करनेकी प्रक्रिया बतलाते हुए कहा हैसर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमिनेनान्तरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मनः ॥३०॥ अर्थात् सब इन्द्रियोंको संयमित करके स्थिर अन्तरात्माके द्वारा क्षणभरके लिये अनुभव करनेवाले जीवको जो कुछ प्रतिभासित होता है वही परमात्माका स्वरूप है । बौद्धाचार्य धर्मकीर्तिने अपने प्रमाणवार्तिकमें निर्विकल्प दर्शनकी भी यही प्रक्रिया बतलायी है । यथा संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना । स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साक्षजा मतिः ॥२४॥ - ३. परि. - दोनों श्लोकोंके द्वितीयचरण 'स्तिमितेनान्तरात्मना ' ध्यान देने योग्य है । धर्मकीर्ति तो पूज्यपादके पश्चात् हुए हैं यह निश्चित है । अतः उक्तपद संभव है दिङ्नाग वगैरहका हो । जो हो । इससे स्पष्ट है कि यद्यपि पूज्यपादने आत्मतत्त्वका वर्णन कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके आधारपर ही किया है । किन्तु अपने समय के बौद्धादि दर्शनोंके शब्दोंको जो उस समय विशेष रूपसे प्रचलित रहे होंगे, उन्होंने अपनाया है तथा बौद्धदार्शनिकोंने निर्विकल्पतत्त्वको जिस प्रकारसे अनिर्देश्य आदि बतलाया है, पूज्यपादने उस प्रक्रियाका अवलम्बन लेकर आत्मतत्त्वका प्रतिपादन किया है । आत्माका स्वरूप स्वसंवेद्य है, वचनोंके द्वारा उसे नहीं कहा जा सकता, इस बातका कथन करते हुए लिखा है १. 'अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षप्यते मनः । तदेव ज्ञानसंस्कार स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥ ३७|| स० तं० । तद्ब्रूयात् तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥ ५३॥ स० तं० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy