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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १५७ रूप से और पर को पररूपसे जाना है। अर्थात आत्माको आत्मरूपसे परको पररूप से जानना ही मोक्षका मार्ग है, यही आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है ।
दूसरे श्लोकके द्वारा पूज्यपादने 'जिनको' नमस्कार किया है और उनके विशेषण रूपसे शिव, धाता (ब्रह्मा), सुगत (बुद्ध) और विष्णु पदोंका प्रयोग किया है। प्रकारान्तरसे समन्वयकी यह भावना कम से कम जैन-परम्परामें तो पूज्यपादकी ही देन प्रतीत होती है। उनसे पहलेके किसी ग्रन्थमें इस प्रकारका प्रयोग नहीं देखने में आता । ___ तीसरे श्लोकके द्वारा पूज्यपादने कैवल्यसुखकी प्राप्तिके इच्छुक जनोंके लिए शुद्ध आत्माका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है और उसके लिए श्रुत, लिंग, समाहित अन्तःकरण और स्वानुभवको सहायक बतलाया है। यहाँ श्रुतसे उनका संकेत कुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थोंकी ओर जान पड़ता है, क्योंकि इस ग्रन्थका विषय ही नहीं, किन्तु अनेक पद्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके शब्दशः ऋणी प्रतीत होते हैं।
आत्माका वर्णन प्रारम्भ करते हुए पूज्यपादने आत्माके तीन भेद किये हैबहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा तथा बहिरात्माको छोड़कर अन्तरात्माके द्वारा परमात्माको अपनानेको कहा है। ठीक यही बात कुन्दकुन्दाचार्यने मोक्षप्राभृतमें कही है
तिपयारो सो अप्पा परमंतरबहिरोह देहीणं । तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चयहि बहिरप्पा । मो० पा० बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु ।
उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ।।४।। स० तं० जो शरीरादिको आत्मा मानता है वह बहिरात्मा है। चित्त (विकल्प) और रागादि दोषोंसे भी आत्माको जो भिन्न अनुभव करता है वह अन्तरात्मा है । और जो अत्यन्त निर्मल है वह परमात्मा है। ये लक्षण भी कुन्दकुन्दके अनुकरण रूप ही हैं । तथा
आगे ग्रन्थकारने बहिरात्मा किस प्रकार शरीरादिको आत्मा मानता है इसका विवेचन करते हुए लिखा है कि स्त्री, पुत्र आदिमें ममत्वबुद्धिके होनेसे अविद्या नामका एक संस्कार दृढ़ हो जाता है जिसके कारण यह अज्ञानी लोक शरीरको ही आत्मा मानता है । यह कथन भी कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत की भी ११वीं गाथाका ही ऋणी है। किन्तु इसमें अन्तर यह है मिथ्या ज्ञानके स्थानमें अविद्या नामक संस्कारका निर्देश किया है, यथा
अविद्यासंशितस्तस्मात्संस्कारो जायते दृढः ।