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________________ १५६ : जैनसाहित्यका इतिहास आगे आत्माका स्वरूप और उसका ध्यान करनेकी प्रेरणा करते हुए कहा है यह आत्मा स्वसंवेदनसे स्पष्ट अनुभवमें आता है । यह स्वशरीर प्रमाण, अविनाशी है, अत्यन्त सुखका भण्डार है तथा लोक और अलोकका ज्ञाता दृष्टा है ॥२१॥ इन्द्रियोंको वशमें करके एकाग्र चित्तसे आत्माका आत्मामें आत्माके द्वारा ध्यान करो ||२२|| अज्ञानको उपासनासे अज्ञान मिलता है और ज्ञानीके समागम से ज्ञान मिलता है । सो ठीक है जिसके पास जो होता है वह वही तो देता है ॥२३॥ इस तरहके आत्मभावनापूर्ण उपदेशोंसे यह इष्टोपदेश भरा हुआ है । यद्यपि इसमें निश्चय और व्यवहारमूलक कथन भेदका चित्रण नहीं है किन्तु सारा उपदेश कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रतिपादित आत्मस्थितिरूप अध्यात्मकी ओर ही ले जाता है । कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका उसपर स्पष्ट प्रभाव है । एक श्लोक तो उनकी गाथाकी छाया जैसा है । यथा एगो में सासदी अप्पा णाणदंसणलक्खणो । सेसा में वाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।। ५९ ।। भावश ० X X X एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः । बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥ २७ ॥ इष्टोप ० समाधि तंत्र' - ग्रन्थकारने अन्तिम पद्य में इस ग्रन्थका समाधितंत्र नाम दिया है । किन्तु टीकाकार प्रभाचन्द्रने अपनी टीका - प्रशस्ति में इसका नाम 'समाधि - शतक' दिया है । इसमें १०५ पद्य हैं अतः इसे शतक संज्ञा देना अनुचित नहीं है । क्योंकि भर्तृहरिके नीतिशतकमें ११० और वैराग्यशतकमें ११३ पद्य हैं और समन्तभद्रके जिनशतकमें ११६ है । अतः १०५ पद्योंके होते हुए भी ग्रन्थको 'शतक' संज्ञा दी जा सकती है । किन्तु ग्रन्थकारने स्वयं उसे समाधितंत्र नाम ही दिया है । यथा मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहं षियं च संसारदुःखजननीं जननाद्विमुक्तः । ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठस्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाघितन्त्रम् ।। १०५। ग्रन्थके मंगल-श्लोकके द्वारा भी ग्रन्थकारने अविनाशी अनन्त ज्ञानस्वरूप सिद्धात्माको नमस्कार करते हुए कहा है कि उस सिद्धात्माने आत्माको आत्मा १. समाषितन्त्र निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे प्रथम गुच्छकके अन्तर्गत प्रकाशित हुआ था। उसके पश्चात् वीरसेवा मन्दिर सरसावा (सहारनपुर ) से प्रभाचन्द्राचार्य कृत संस्कृत टीका और हिन्दी टीकाके साथ प्रकाशित हुआ है ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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