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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १५५ जीवनादिके सम्बन्धमें आगे प्रकाश डाला जायगा। इनकी अध्यात्मविषयक दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। उनमेंसे एकका नाम है इष्टोपदेश और दूसरीका नाम है समाधितंत्र।
इष्टोपदेश'—यह ५१ संस्कृत पद्योंका एक छोटा-सा अध्यात्मिक ग्रन्थ है । यह 'यथानाम तथा गुण' है। इसके अन्तिम पद्यमें ग्रन्थकारने कहा है कि बुद्धिमान भव्यजीव इस इष्टोपदेशको अच्छी तरहसे पढ़कर मान और अपमानमें समभावको रखे और आग्रहको छोड़कर वनमें अथवा प्रामादिमें रहे । वह अनुपम मुक्तिलक्ष्मीको प्राप्त करता है ।
प्रन्थके पचास पद्य संस्कृत अनुष्टुप् छन्दमें है । एक-एक पद्य एक-एक मणिकी तरह बहुमूल्य है । संस्कृत बड़ी परिमार्जित और सरल है किन्तु उसमें जो उपदेश भरा हुआ है वह अमूल्य है । ५०वें पद्यमें कहा है-'जीव अन्य है और पुद्गल अन्य है' इस वाक्यमें सब तत्त्वोंका संग्रह हो जाता है। इसके सिवाय जो कुछ कहा जाता है वह इसीका विस्तार है'।
उसी विस्तारको करते हुए ग्रन्थकारने कहा है-'शरीर, मकान, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु ये सब अपनी आत्मासे भिन्न स्वभाववाले हैं। अज्ञानी इन्हें अपना मानता है ॥८॥ रात्रिके समय नाना देशों और दिशाओंसे आकर पक्षीगण वृक्षोंपर बसेरा लेते हैं और दिन निकलनेपर अपने-अपने कार्यवश विभिन्न देशों और दिशाओंको चले जाते हैं । वही दशा संसारकी है ॥९॥
जो निर्धन इसलिए धनका संचय करता है कि मैं इसके द्वारा धर्म कार्य करूँगा । वह स्नान करनेकी भावनासे अपने शरीरको कीचड़से लिप्त करता है ॥१॥
भोगोंकी निन्दा करते हुए लिखा है-आरम्भमें संताप देनेवाले, और प्राप्त हो जानेपर अतृप्तिको उत्पन्न करनेवाले तथा अन्तमें जिनको त्यागना अतिकष्ट साध्य होता है ऐसे भोगोंको कौन बुद्धिमान् चाहेगा ॥९७॥
शरीरकी निन्दा करते हुए लिखा है-जिसके संसर्गसे पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं जो सदा भूख रोग आदि व्याधियोंका घर है, उस शरीरकी स्वस्थताके लिए प्रार्थना करना व्यर्थ है ।
इष्टोपदेश पं० आशाधर रचित संस्कृत टीकाके साथ प्रथमवार श्री माणिकचन्द दि० जैन ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित 'तत्त्वानुशासनादिसंग्रह' में प्रकाशित हुआ था। तथा हिन्दी टीकाके साथ वीरसेवा मन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) से प्रकाशित हुआ है।