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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १५३ कराते हैं। जितना शुभाशुभ है वह सब कर्मोके द्वारा ही किया जाता है । चूंकि कर्म ही सब कुछ करते-धरते, और देते-लेते हैं, अतः सभी जीव अकर्ता ठहरते हैं । ऐसी स्थितिमें पुरुष-वेद कर्म-स्त्रीकी अभिलाषा करता है और स्त्री-वेद कर्मपुरुषकी अभिलाषा करता है ऐसा आचार्योका कथन है और शास्त्रमें लिखा है। अतः आपके मतमें कोई भी जीव अब्रह्मचारी नहीं ठहरा; क्योंकि कर्म ही कर्मकी अभिलाषा करता है ॥३३२-३३७॥ तथा जिस कर्मके उदयसे एक जीव दूसरे जीवका घात करता है और एक जीव दूसरे जीवके द्वारा घाता जाता है वह परघातनाम कर्म है। अतः आपके मतमें कोई भी जीव घातक नहीं ठहरता; क्योंकि कर्म ही कर्मको घातता है । इस प्रकार जो श्रमण सांख्यमतका अवलम्बन लेकर इस प्रकार कथन करते हैं उनके मतसे प्रकृति ही की है और सब आत्मा अकारक ठहरते हैं। यदि कहा जाय कि और सब काम तो प्रकृति करती है, आत्मा केवल आत्माको करता है तो यह कहना भी मिथ्या है। आत्मा तो नित्य असंख्यात प्रदेशी है । वह उससे न छोटा हो सकता है और न बड़ा । यदि कहा जाय कि आत्मा ज्ञायक स्वभाव है और ज्ञायकभाव सदा ज्ञानस्वभाव रूप ही रहता है तो आत्मा स्वयं अपना कर्ता नहीं ठहरता ॥३४२-३४४॥ __ आगे कहा है जिसका ऐसा सिद्धान्त है कि जो करता है वह नहीं भोगता, वह मिथ्यादृष्टि आहत मतानुयायी नहीं हैं ॥३४७॥ जिसका सिद्धान्त है कि अन्य कर्ता है और अन्य भोगता है वह भी मिथ्यादृष्टि है और अर्हत-मतानुयायी नहीं है ॥३४८॥ आगे ग्रन्थकारने दृष्टान्त द्वारा जीवके कर्तृत्व और भोक्तृत्वका निश्चय और व्यवहारदृष्टिसे कथन किया है । ___आगे कहा है कि जीवके जो गुण हैं वे जीवमें ही हैं, अन्य द्रव्योंमें नहीं हैं। अतः सम्यग्दृष्टि विषयोंमें राग नहीं करता ॥३७०॥ अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके गुणोंको उत्पन्न नहीं करता। अतः सभी द्रव्य स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं ॥३७२॥ निन्दा और स्तुतिवचन रूप पुद्गल ही परिणत होते हैं । किन्तु उन्हें सुनकर यह जीव रुष्ट और संतुष्ट होता है कि मुझे इसने ऐसा कहा है ॥३७३।। परन्तु शब्द तो पौद्गलिक हैं उनका गुण तुमसे भिन्न है । अतः पौद्गलिक शब्दोंने तुझे कुछ भी नहीं कहा, तू अज्ञानी बनकर क्यों रुष्ट या संतुष्ट होता है ॥३७४॥ इस तरहसे सभी इन्द्रियोंके विषयोंमें राग-द्वेष करनेकी प्रवृत्तिको अज्ञान बतलाया है। आगे प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, और आलोचनाका स्वरूप चार गाथाओंसे (३८३-३८६) बतलाया है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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