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१५२ : जैनसाहित्यका इतिहास आत्मामें परद्रव्यके कर्तापनेका अभाव बतलाया है । लिखा है
जो द्रव्य अपने जिन गुणोंको लिये हुए उत्पन्न होता है वह अपने उन गुणोंसे अभिन्न होता है। जैसे स्वर्ण कड़ा आदि पर्यायोंसे अभिन्न होता है ॥३०८॥ आगममें जीव और अजीवके जो परिणाम बतलाये हैं, जीव और अजीव अपने उन परिणामोंसे अभिन्न है ॥३०९॥ अतः आत्मा किसीसे उत्पन्न नहीं होता अतः वह किसीका कार्य नहीं है । और किसीको वह उत्पन्न नहीं करता इसलिये न किसीका कारण है ॥३१३॥ कर्मको अपेक्षा कर्ता और कर्ताको अपेक्षा कर्म होता है ।
सारांश यह है कि जीवका अजीवके साथ कार्यकारण भाव नहीं है । अतः न अजीव जीवका कर्म है और न जीव जड़ कर्मका कर्ता है । किन्तु यह जीव अनादिकालसे जड़ और चेतनके भेदको न जाननेके कारण जड़के साथ आत्माका एकत्वाध्यवसाय करके, जड़के निमित्तसे उत्पन्न होता और नष्ट होता है और जड़ भी चेतनके निमित्तसे उत्पन्न होता और नष्ट होता है । इस तरह इन दोनोंमें यद्यपि कर्ता कर्मपना नहीं है तथापि परस्परमें निमित्त नैमित्तिक भाव होनेसे दोनोंका बन्ध होता है और उससे संसार होता है। इसी कारण उन दोनोंमें कर्ताकर्मव्यवहार माना जाता है ॥३१२-३१३॥
जब तक यह आत्मा जड़के निमित्तसे होनेवा रागादि भावोंमें ममत्वभाव नहीं छोड़ता तबतक वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि और असंयमी रहता है ।।३१४।। 'किन्तु जब उसे छोड़ देता है तो ज्ञाता दृष्टा मुनि मुक्त हो जाता है ।।११५।।।
आगे कहा है कि जैसे निश्चय दृष्टिसे आत्मा कर्मोका कर्ता नहीं वैसे ही उनका भोक्ता भी नहीं है। आगे कहा है कि लोकमें माना जाता है कि विष्णु इस देव मानुष तिर्यञ्च और नारक पर्यायोंका कर्ता है। उसी तरह यदि श्रमण (जैन) भी ऐसा कहते हैं कि आत्मा उक्त पर्यायोंका कर्ता है तो लोक और श्रमणोंके सिद्धान्तमें कोई भेद नहीं रहता। क्योंकि लोगोंके मतसे विष्णु कर्ता है और श्रमणोंके मतसे आत्मा कर्ता है । ऐसी स्थितिमें इस सचराचर जगतका कर्ता माननेवाले लोक और श्रमणोमें से किसीको भी मोक्ष प्राप्त होना संभव दिखाई नहीं देता ॥३२१-३२३॥ आशय यह है कि जिसकी परद्रव्यमें कर्तृत्व बुद्धि है वह मिथ्यादृष्टि है।
आगे साख्यमतका अनुसरण करते हुए जो श्रमणाभास आत्माको अकर्ता जड़ कर्मको ही कर्ता मानते हैं तेरह गाथाओंके द्वारा उनके मतका निरूपण और उसपर दोषापादन करते हुए लिखा है
कर्म ही जीवको अज्ञानी करते है और कर्म ही जीवको ज्ञानी करते है । कर्म ही उसे सुलाते और जगाते हैं । कर्म ही जीवको सुखी और दुखी करते हैं । कर्म ही जीवको मिथ्यादृष्टि और असंयमी करते हैं। कर्म ही जीवको भ्रमण