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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १५१ शब्द एकार्थक हैं ॥२७१।। इस प्रकार निश्चयनयके द्वारा व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है । जो मुनि निश्चयनयका अवलम्बन लेते हैं वे निर्वाणको पाते हैं ॥२७२।। इस अधिकारमें ५१ गाथाएँ हैं और गाथा २८७ के साथ यह अधिकार समाप्त होता है। ९ मोक्ष अधिकार-समस्त कर्म बन्धनसे आत्माके छूट जानेका नाम मोक्ष है। अतः प्रारम्भमें कहा गया है कि जैसे कोई आदमी बहुत काल से बन्धनमें पड़ा हुआ है और वह यह बात जानता है। किन्तु जानते हुए भी जब तक वह उस बन्धनको नहीं काटता तब तक वह उससे मुक्त नहीं हो सकता। इसी तरह कर्म बन्धनके स्वरूपको जाननेसे मुक्ति नहीं मिल सकती ॥२८८-२९०॥ इसी तरह बन्धकी चिन्ता करनेसे भी बन्धनसे छुटकारा नहीं मिल सकता :।२९१॥ मोक्ष तो बन्धनको काटने पर ही मिल सकता है ॥२९२॥ और उसको काटनेका उपाय है बन्धका और आत्माका स्वभाव जानकर बन्धसे विरक्त होना ॥२९३।। प्रज्ञा द्वारा आत्मा और कर्मबन्धको भिन्न-भिन्न जानकर आत्माको ग्रहण करना और बन्धको छोड़ना यही मोक्षका उपाय है ॥२९५।। ऐसा कौन ज्ञानी है जो शुद्ध आत्माके स्वरूपको जानते हुए भी कर्मके उदयसे होने वाले भावोंको 'यह मेरे हैं' ऐसा कहेगा ।।३००॥ जो चोरी आदि अपराधोंको करता है वह पकड़े जानेके भयसे सशङ्क होकर इधर-उधर घूमता है ॥३०१॥ किन्तु जो निरपराध होता है वह निःशङ्क होकर देशमें घूमता है । उसे पकड़े जानेकी चिन्ता कभी नहीं होती ॥३०२॥ आगे आचार्यने अपराधका स्वरूप बतलाते हए कहा है-संसिद्धि, राध, सिद्धिः, माधित और आराधित ये सब शब्द एकार्थ वाची है । जो आत्मा 'राध' अर्थात् शुद्धात्माकी आराधनासे अपगत-रहित है वह अपराधी है। जैनाचारमें मुनिको दोषोंका परिमार्जन करनेके लिए प्रतिक्रमण आदि करनेका विधान है। अतः कोई कह सकता है कि अपराधकी शुद्धि तो प्रतिक्रमणादि करनेसे होती है, शुद्ध आत्माको उपलब्धिसे अपराधका शोधन कैसे हो सकता है ? इसके उत्तरमें कुन्दकुन्दाचार्यने प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा और शुद्धि इन आठोंको विषकुम्भ कहा है ॥३०६॥ और अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगहीं और अशुद्धिको अमृत कुम्भ कहा है ।।३०७।। इसका आशय यह है कि प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमणसे रहित जो तीसरी अवस्था है वह है शुद्ध आत्मामें लीनता, उसीसे आत्मा निर्दोष होता है ।।३०८। इस तरह मोक्षाधिकार पूर्ण होता है इसमें बीस गाथाएँ हैं। १०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार-यह अधिकार पूर्व अधिकारोंमें प्रतिपादित कथनका निचोडरूप है। इसमें सर्वप्रथम दृष्टान्तपूर्वक चार गाथाओंके द्वारा
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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