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१५० : जैनसाहित्यका इतिहास मानता है कि मैं अन्य जीवोंको जिलाता हूँ या अन्य जीव मुझे जिलाते हैं। वह मूढ़ अज्ञानी है। ज्ञानी उससे विपरीत होता है ॥२५०॥ आयुके उदयसे जीवन होता है । न तू किसीको आयुका दान दे सकता है और न दूसरे तुझे आयुका दान दे सकते हैं । तब कैसे तू दूसरोंको जिलाता है और कैसे दूसरे तुझे जिलाते हैं ॥२५१-२५२॥ जो ऐसा मानता है कि मैं दूसरोंको दुःखी अथवा सुखी करता हूँ या दूसरे जीव मुझे दुःखी या सुखी करते हैं वह मूढ़ अज्ञानी है। ज्ञानी उससे विपरीत होता है ।।२५३-२५४॥ कर्मके उदयसे जीव दुःखी अथवा सुखी होते हैं । तू किसीको कर्म का दान नहीं दे सकता और न दूसरे जीव तुझे कमका दान दे सकते । तब कैसे तू दूसरोंको और दूसरे तुझे सुखी या दुःखी कर सकते हैं ॥२५५-२५६॥
कठोपनिषदमें भी आत्माके अमरत्वका प्रतिपादन करते हुए कहा हैयदि मारनेवाला व्यक्ति अपनेको मारने में समर्थ मानता है और मारा जानेवाला व्यक्ति अपनेको मारा गया समझता है तो वे दोनों ही नहीं जानते—यह आत्मा न तो किसीको मारता है और न मारा जाता है। गीतामें भी युद्धसे विमुख अर्जुनके लिए श्रीकृष्णके द्वारा यही उपदेश दिलाया गया है । इससे आत्माके अमरत्वकी सिद्धि की गयी है । किन्तु समय-प्राभृतमें यह कथन बन्ध के प्रकरणमें यह बतलानेके लिए किया गया है कि न कोई किसीको मार सकता है, न कोई किसीको जिला सकता है, न कोई किसीको सुखी दुःखी कर सकता है। फिर भी इस प्रकारका जो भाव है वह भाव ही पुण्य और पाप कर्मों के बन्धका कारण होता है। आगे कहा है___ तेरी जो यह भावना है कि मैं जीवोंको दुःखी या सुखी करता हूँ, उन्हें मारता या जिलाता है या दूसरे जीव मुझे दुःखी या सुखी करते हैं या मारते अथवा जिलाते हैं यही पुण्य और पापकर्मके बन्धका कारण है। अतः कहा है-जीवको मारो या मत मारो, मारनेका भाव होनेसे कर्म का बन्ध होता है । निश्चयनयसे यह बन्धका सार है ॥२६२।। जीवोंके अच्छे या बुरे भाव वस्तुको लेकर ही होते हैं किन्तु वस्तु बन्धका कारण नहीं है, बन्धका कारण जीवके अपने शुभ अशुभ भाव हैं ॥२६५॥
जो मुनि इस प्रकारके भाव नहीं करते वे शुभाशुभ कर्मोसे लिप्त नहीं होते ॥२७॥
बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव, परिणाम ये सब १. 'हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतञ्चेन्मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं
हन्ति न हन्यते ॥१९॥-कठो०,२ ।