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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १४९ पड़ा हुआ लोहा ॥२१९॥ इसी तरह दृष्टांतोंके द्वारा ज्ञानीको भोगते हुए भी कर्मसे निलिप्त बतलाया है। आगे गाथा २२८ से २३६ तक सम्यग्दृष्टिके निःशङ्कित आदि पाठ अंगोंका कथन किया है । २३६वीं गाथाके साथ ही निर्जराधिकार पूर्ण हो जाता है । ८. बन्ध अधिकार-जैसे कोई मनुष्य अपने शरीरमें तेल लगाकर और धूलसे भरी हुई भूमिमें खड़ा होकर शस्त्रोंके द्वारा व्यायाम करता है ॥२३७॥ ताड़, केला, बाँस वगैरहके वृक्षोंको शस्त्रोंसे छेदन-भेदन करता है। सचेतन और अचेतन द्रव्योंका उपघात करता है ॥२३८॥ इस तरह अनेक अस्त्र-शस्त्रोंके द्वारा छेदन-भेदन करते हुए उस मनुष्यके शरीरमें जो धूल चिपक जाती है, निश्चयसे उसका कारण क्या है, यह विचार करो ॥२३९।। उसके शरीरमें तेल लगा हुआ है निश्चयसे उसीके कारण उसके शरीरमें धूल चिपट जाती है अन्य शारीरिक चेष्टाओंके कारण नहीं ॥२४०॥ इसी तरह मिथ्यादृष्टि जीव अनेक चेष्टाओंको करता हआ अपने उपयोगमें जो राग-द्वेष करता है उसीसे वह कर्मरूपी धूलिसे लिप्त होता है ॥२४१॥ ___यदि वही मनुष्य शरीरमें लगे तेलको बिल्कुल दूर करके उसी धूलभरे स्थानमें शस्त्राभ्यास करे ॥२४२॥ अनेक वृक्षोंका छेदन-भेदन करे तो उसका शरीर धूलसे लिप्त नहीं होता, इसका कारण वास्तवमें क्या है ॥२४३-२४४॥ उसके शरीरमें जो तेल नहीं लगा है उसीके कारण उसका शरीर व्यायाम करनेपर भी धूलसे लिप्त नहीं होता। इसी तरह सम्यग्दृष्टि अनेक शारीरिक, मानसिक और वाचनिक क्रियोंमें प्रवृत्ति करते हुए भी उपयोगमें रागादिभाव नहीं करता, इसलिये वह कर्मसे लिप्त नहीं होता ॥२४६।। इस तरह प्रथम ही दस गाथाओंके द्वारा बन्धके कारणका विवेचन दृष्टान्तपूर्वक किया है। आगे अध्यवसानको बन्धका कारण बतलाते हुए जो विचार प्रस्तुत किया गया है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं विचारणीय है । लिखा है 'जो ऐसा' मानता है कि मैं अन्य प्राणियोंकी हिंसा करता हूँ और अन्य प्राणी मेरी हिंसा करते हैं वह मूढ़ अज्ञानी है । ज्ञानी उससे विपरीत होता है ॥२४७॥ जीवोंका मरण उनकी आयुके क्षयसे होता है। तू किसीकी आयुको हर नहीं सकता । तब तू किसीको कैसे मार सकता है ॥२४८। इसी तरह अन्य जीव तेरी आयुको नहीं हर सकते तब वे तुझे कैसे मार सकते हैं ॥२४९॥ जो ऐसा १. जो मण्णदि हिंसामि य हिसिंज्जामि य परेहि सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२४७॥-स०प्रा० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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