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१४८ : जैनसाहित्यका इतिहास द्रव्यमें तन्मय होकर शीघ्र ही कर्मबन्धनसे मुक्त आत्माको प्राप्त कर लेता है ॥१८७-१८९॥ __ इस तरह बारह गाथाओंके द्वारा संवरका कथन किया गया है। यह अधिकार १९२वीं गाथा के साथ समाप्त होता है।
७. निर्जरा अधिकार-इस अधिकारको प्रारम्भ करते हुए कहा है कि सम्यग्दृष्टि इन्द्रियोंके द्वारा जो चेतन और अचेतन द्रव्योंको भोगता है उसका वह भोग निर्जरा ( बंधे हुए कर्मोंका छूटना) का कारण है ॥ १९३ ।। द्रव्यका उपभोग करनेपर नियमसे सुख अथवा दुःख होता है। उस सुख अथवा दुःखका उदय होनेपर जीव उसका अनुभवन करता है और इस तरह वह निर्जराको प्राप्त होता है ॥१९४॥ जैसे विषवैद्य विष खाकर भी नहीं मरता । उसी तरह ज्ञानी पुद्गल कर्मोके फलको भोगते हुए भी कर्म संबद्ध नहीं होता ॥१९५॥ जैसे अरुचिपूर्वक मद्यपान करनेवाला मनुष्य नशेसे ग्रस्त नहीं होता वैसे ही अरुचिपूर्वक द्रव्यका उपभोग करता हुआ भी ज्ञानी कमसे बद्ध नहीं होता ॥१९६।। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी विषयोंका सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता ओर मिथ्यादृष्टि अज्ञानी नहीं सेवन करते हुए भी विषयोंका सेवक बना रहता है ॥१९७।। इस अन्तरका कारण बतलाते हुए कहा है__ जिनेन्द्रदेवने कर्मोके उदयका विपाक अनेक प्रकारका बतलाया है। किन्तु वह सब मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो एक ज्ञायक रूप हूँ ।।१९८॥ राग पौद्गलिक कर्म है । उसका उदय होनेपर राग होता है। अतः वह मेरा स्वभाव नहीं है । मैं तो एक ज्ञायक भावरूप हूँ ॥१९९ । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्माको ज्ञायक भावरूप जानता है और तत्त्वको जानता हुआ कर्मके उदयसे होनेवाले भावों को अपना नहीं मानता ॥२०॥
आगे कहा है जिसके रागादि भावोंका अणुमात्र भी अंश वर्तमान है वह समस्त आगमोंका ज्ञाता होते हुए भी आत्माको नहीं जानता ॥२०१।। और जो आत्माको नहीं जानता वह अनात्माको भी नहीं जानता । और जो आत्मा (जीव) और अनात्मा ( अजीव ) को नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ॥२०२॥
भागे ज्ञानी परवस्तुका ग्रहण क्यों नहीं करता और परिग्रहका त्याग क्यों कर देता है, इसका सुन्दर विवेचन किया है । आगे लिखा है-जैसे कीचड़में पड़ा हुआ स्वर्ण कीचड़से लिप्त नहीं होता वैसे ही ज्ञानी सब द्रव्योंसे विरक्त होनेके कारण कर्मोके मध्यमें रहते हुए कर्मरूपी रजसे लिप्त नहीं होता ॥२१८॥ किन्तु अज्ञानी सब द्रव्योंसे बनुरक्त रहता है अतः कर्मस्पी रजसे लिप्त होता है । जैसे कर्दममें