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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १४७ होते हैं और चेतन भी होते हैं । जड़को द्रव्य-प्रत्यय कहते हैं और चेतनको भाव-प्रत्यय कहते हैं। द्रव्यप्रत्ययरूप मिथ्यात्व कर्मका उदय होनेपर जब जीव रागादि रूप परिणमन करता है तो कर्मबंधन होता है। इसलिये अज्ञानमय रागादिभाव ही आस्रवके कारण होनेसे आस्रव हैं। वे भाव अज्ञानीके ही होते हैं, ज्ञानीके नहीं होते । अतः ज्ञानीके आस्रव नहीं होता।
इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि यथाख्यातचारित्ररूप अवस्थासे नीचेकी दशामें रागका सद्भाव अवश्य रहता है और राग बन्धका हेतु है तब ज्ञानी निरास्रव कैसे है ? इसका उत्तर देते हुए कहा है कि जब तक ज्ञान, दर्शन
और चरित्र अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें नहीं पहुँचते तबतक ज्ञानीके अबुद्धिपूर्वक रागका उदय है वह अनुमानसे जाना जाता है; क्योंकि यदि ऐसा न होता तो ज्ञानादि गुण जघन्य अवस्थामें क्यों पाये जाते ? अतः पौद्गलिक कर्मोका बन्ध होता है। किन्तु जब ज्ञानादि गुण अपनी पूर्णावस्थाको प्राप्त हो जाते हैं तब साक्षात् ज्ञानीभूत आत्माके कर्मका आस्रव नहीं होता ॥१७५।।
इस तरह १८० गाथापर्यन्त १७ गाथाओंमें आस्रव अधिकार पूर्ण होता है।
६. संवर अधिकार-संवरका उपाय भेदविज्ञान है । अतः प्रथम तीन गाथाओंके द्वारा भेद-विज्ञानकी रीति बतलायी है । लिखा है-ज्ञान ज्ञानमें है, क्रोधादि भाव क्रोधादि रूप ही हैं। न क्रोध ज्ञानमें है और न ज्ञान क्रोधमें है। यही बात ज्ञान और कर्म-नोकर्मके विषयमें भी जाननी चाहिये ॥१८१-१८२।। जब जीवको इस प्रकारका अविपरीत ज्ञान होता है तब शुद्धोपयोगी, आत्माका ज्ञान ज्ञानमय ही रहता है और रागादि भावरूप नहीं होता। अतः इसके राग द्वेष मोहका अभावरूप संवर होता है ।।१८३।।।
आगे दृष्टान्त द्वारा उसको स्पष्ट करते हुए कहा है-जैसे सोना अग्नि से तप्त होनेपर भी स्वर्ण भावको नहीं छोड़ता उसी तरह कमके उदयसे संतप्त ज्ञानी अपने ज्ञानीपनेको नहीं छोड़ता, ऐसा ज्ञानी जानता है। किन्तु अज्ञानी आत्मस्वभावको नहीं जानता हुआ आत्माको रागादि रूप ही जानता है ॥१८४१८५ ।। जो जीव शुद्ध आत्माका अनुभव करता है उसे शुद्ध आत्माको प्राप्ति होती है और जो अशुद्ध आत्माका अनुभव करता है उसे अशुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है ॥१८६॥
आगे तीन गाथाओंके द्वारा संवरका प्रकार बतलाते हुए कहा है- जो आत्माको आत्माके द्वारा पुण्य और पापरूप योगसे हटकर अपने दर्शन ज्ञानात्मक स्वरूपमें स्थित होता है और परवस्तुको इच्छा नहीं रखता, तथा समस्त परिग्रहसे मुक्त होकर अपनी आत्माका ध्यान करता है, कर्म और नोकर्मको अपना नहीं मानता । वह आत्माका ध्यान करता हुआ शुद्ध दर्शन ज्ञानमय आत्म