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१४६ : जैनसाहित्यका इतिहास
यदि तुम्हारा मत है कि जीव स्वयं क्रोध रूप परिणमन करता है तो क्रोध कर्म जीवको क्रोध रूप परिणमता है यह कथन मिथ्या है || १२४ || अन्तमें यही निष्कर्ष निकलता है - आत्मा जिस भावको कर्ता है वह उस भावका कर्ता होता है । ज्ञानीके भाव ज्ञानमय होते हैं और अज्ञानी के भाव अज्ञानमय होते हैं ॥ १२६ ॥
आगे कहा है कि पुद्गलका परिणाम जीवसे भिन्न है और जीवका परिणाम पुद्गलसे भिन्न है । कर्म जीवसे बद्ध है या अबद्ध ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा है कि जीवमें कर्म बद्ध और स्पृष्ट है, यह व्यवहार नयका कथन है । कर्म जीवसे अबद्ध और अस्पृष्ट है, यह शुद्ध नयका कथन है || १४१ ॥ जीवसे कर्म बद्ध है और जीवसे कर्म अबद्ध है वे दोनों ही नयपक्ष हैं किन्तु समयसार पक्षातिक्रान्त है । अर्थात् नयपक्ष रहित आत्मसंवेदी के अभिप्रायसे तो जीवका स्वरूप इन विकल्पों से रहित चिदानन्दमय है ।
वह अधिकार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । १४४ गाथापर्यन्त ७६ गाथाओं में इसकी समाप्ति होती है ।
४. पुण्य-पाप अधिकार - व्यवहारी मनुष्य शुभकर्म या पुण्यकर्मको अच्छा और अशुभ अथवा पापकर्मको बुरा समझते हैं । किन्तु दोनों ही बन्धरूप हैं । अतः जो शुभकर्म संसारमें जीवको रोके रखता है वह अच्छा कैसे हो सकता ॥१४२॥ जैसे लोहेकी सांकल भी पुरुषको बांधती है और सोनेकी सांकल भी बांधती है । इसी तरह शुभ-अशुभ कर्म भी जीवको बांधते हैं ॥ १४६ ॥ अतः ग्रन्थकार कहते हैं कि जो बुरे शुभ-अशुभ कर्म हैं उनसे राग मत करो और उनका संसर्ग मत करो । बुरोंके संसर्ग और रागसे जीवकी स्वाधीनता का विनाश हो जाता है ।।१४७ ।।
रागी कर्मसे बंधता है, विरागी कर्म बंधनसे छूटता है, यह जिन भगवानका उपदेश है । अतः शुभाशुभ कर्मोंसे अनुराग मत करो ।। १५० ।। आगे कहा हैस्व-स्वभाव में स्थित मुनि निर्वाणको प्राप्त करते हैं ।। १५१ । । किन्तु स्वस्वभाव में जो मुनि स्थित नहीं है, वह जो तप करता है, व्रत पालता है वह सब बालतप और बालव्रत है ।। १५२ ।। परमार्थसे बहिर्भूत जो व्यक्ति हैं वे मोक्षके कारणको नहीं जानते और अज्ञानवश उस पुण्यको चाहते हैं जो संसारका कारण है ।। १५४ ॥
इस तरह उन्नीस गाथाओंके द्वारा इस अधिकारमें पापकी तरह पुण्यको भी है बतलाया है । वह अधिकार १६३वीं गाथाके साथ पूर्ण होता है ।
५. आस्रव अधिकार — इस अधिकारके प्रारम्भमें मिथ्यात्व, अविरत, योग और कषायको ज्ञानावरणादि कमका कारण बतलाया है । ये मिथ्यात्वादि जड़ भी