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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १४५ हूँ' ऐसा मानता है। उसका ऐसा मानना अज्ञान है यह अज्ञान ही बन्धका कारण है ॥९६॥ ___ आगे कहा है-व्यवहारसे आत्माको घटपट वगैरहका तथा कर्म नोकर्मका कर्ता कहा जाता है ।।९८।। किन्तु जीव न घटका कर्ता है और न पट आदि शेष द्रव्योंका कर्ता है । किन्तु जीवके विकल्प और व्यवहाररूप जो उपयोग और योग है वे ही घटादिके उत्पादक हैं और जीव उन अपने योग उपयोगरूप भावोंका कर्ता है ॥१००॥ ज्ञानावरण आदि कर्म पुद्गलके परिणाम हैं। उनका कर्ता आत्मा नहीं है । जो यह बात जानता है वह ज्ञानी है ॥१०१॥ किन्तु जीवके अज्ञानभावका निमित्त मिलनेपर पौद्गलिक स्कन्ध कर्मरूप होते हैं। यह देखकर उपचारसे ऐसा कहा जाता है कि जीव कर्मका कर्ता है ॥१०५॥ जैसे युद्ध तो सैनिक करते हैं और कहा जाता है कि राजा युद्ध करता है ॥१०६॥ आगे कहा है बन्धके चार कारण कहे जाते हैं-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ॥१०९।। किन्तु ये सब भाव पुद्गलकर्मोके उदय से होते हैं, अतः जड़ है । इन जड़ भावोंसे यदि कर्म बंधते हैं तो उसका भोक्ता जीव कसे हो सकता है ॥१११॥ उक्त प्रत्यय जड़ हैं यह बतलाते हुए कहा है कि जीवसे जैसे उसका उपयोग (ज्ञान-दर्शन) अभिन्न है वैसे क्रोध नहीं है । ज्ञान जीवरूप है और क्रोधादि भाव जड़रूप हैं। यदि ज्ञानकी तरह क्रोधादि भावोंको भी जीवरूप माना जायेगा तो जड़ और चेतन एक हो जायेंगे । अतः क्रोधादिरूप पौद्गलिक भावोंसे किये गये कर्मोंका जीव न कर्ता है और न भोक्ता है। आगे कहा है कि यदि पुद्गल कर्मके रूपमें स्वयं जीवसे बद्ध नहीं होता और न स्वयं कर्म रूपसे परिणत होता है तो वह अपरिणामी ठहरता है ॥११६।। और कार्मणवर्गणाएं यदि कर्मरूपसे परिणमन नहीं करती तो सांख्यदर्शनकी तरह संसार के अभावका प्रसंग उपस्थित होता है ॥११७॥ यदि कहा जाये कि जीव पुद्गल द्रव्यका कर्मरूपसे परिणमन कराता है तो जो स्वयं अपरिणामी है उसे जीव कैसे परिणमा सकता है। ऐसी स्थिति में यह कहना है कि जीव कर्मरूप परिणमन कराता है मिथ्या ठहराता है ।।११९॥ इसी तरह पुद्गलको परिणामी बतलाकर आगे कहा है यदि जीव स्वयं कर्मसे नहीं बँधा है और न स्वयं क्रोधादि रूप परिणमन करता है तो वह अपरिणामी ठहराता है ॥१२१॥ और यदि जीव स्वयं क्रोधादिभाव रूपसे परिणमन नहीं करता तो सांख्य दर्शनकी तरह संसारके अभावका प्रसंग आता है ॥१२२॥ यदि कहा जाये कि पौद्गलिककर्म क्रोध जीवको क्रोध रूप परिणमाता है तो जो जीव अपरिणामी है क्रोध उसका परिणमन कैसे करा सकता है ? ॥१२३॥ १०
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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