________________
१४४ : जैनसाहित्यका इतिहास | क्रोधादिको भी अपना स्वभाव मानकर राग द्वेष और मोहरूप प्रवृत्ति करता है। अतः वह क्रोधादिका कर्ता आत्माको मानता है और क्रोधादिको आत्माका कर्म मानता है। इस तरह अनादि कालसे यह अज्ञान जन्य कर्ताकर्मभावकी प्रवृत्ति चली आती है। जीवकी इस प्रवृत्तिका निमित्त पाकर स्वयं ही परिणमनशील पौद्गलिक कर्मका संचय हो जाता है और इस तरह जीव और पौद्गलिक कर्मोका परस्पर अवगाह रूप सम्बन्ध हो जाता है। किन्तु जब यह आत्मा यह जान लेता है कि ज्ञान आत्मा जैसे एक वस्तुरूप हैं, उस तरह आत्मा और क्रोधादि भाव एक वस्तुरूप नहीं हैं। उसकी अज्ञान मूलक अनादि कर्ता कर्मप्रकृति रुक जाती है। उसके रुकने पर अज्ञान निमित्तक पौद्गलिक कर्मोंका बन्ध भी रुक जाता है।
यही बात आगे कही है कि-'जीवके परिणामोंका निमित्त पाकर पुद्गल कर्मरूप परिणमन करते हैं। उसी तरह पुद्गल कर्मोंका निमित्त पाकर जीव भी परिणमन करता है । ८० ॥ न तो जीव कर्मके गुणोंको करता है, उसी तरह कर्म भी जीवके गुणोंको नहीं करता। किन्तु परस्परमें निमित्त नमित्तक भाव होनेसे दोनोंका परिणमन होता है ।। ८१ ।। इस कारणसे आत्मा स्वयं अपने भावोंका कर्ता हैं । पुद्गल कर्मकृत सब भावोंका कर्ता आत्मा नहीं है ।। ८२ ॥ इस प्रकार निश्चयनयसे आत्मा अपना ही कर्ता है और अपने ही भावोंका भोक्ता है ॥ ८३ ॥ इसलिये निश्चय नयसे जीव और कर्ममें जैसे कत कर्मपना नहीं है वैसे ही भोक्तृ भोग्यपना भी नहीं है। व्यवहार नयमे ही आत्मा और पौद्गलिक कर्ममें कर्तृ-कर्मभाव और भोक्त-भोग्यभाव कहा है ।। ८४ ॥ आगे कहा है कि यदि आत्मा अपने भावोंको और पौद्गलिक भावोंको भी करता है तो आत्मा दो क्रियाओंका कर्ता ठहरता है। किन्तु ऐसा मानने वाला मिथ्यादृष्टि है ॥ ८६ ।।
मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, योग, मोह तथा क्रोधादि भाव ये सब जीवरूप भी होते हैं और और अजीव रूप भी होते हैं ।। ८७ ॥ पुद्गल कर्म रूप जो मिथ्यात्व, योग, अविरति और अज्ञान हैं वह तो अजीव है। और उपयोग रूप जो मिथ्यात्व अज्ञान और अविरति है वह जीव है ॥ ८८ ॥ मोहयुक्त उपयोग के मिथ्यात्व अज्ञान और अविरति ये तीन परिणाम है ॥ ८९॥ इनमेंसे आत्मा जिस उपयोगरूप आन्, परिणामको करता है उसका वह कर्ता कहा जाता है ॥ ९० ॥ और उसके होने पर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप होता है ।। ९१ ॥ सारांश यह है कि आत्मा मिथ्यात्वादि भावरूप परिणमन न करे तो वह कर्म का कर्ता भी नहीं हो। कर्मके कर्तापनेका मूल अज्ञान है । अज्ञानी अज्ञानवश परद्रव्यको अपने रूप और अपनेको परद्रव्य रूप करता है। अर्थात् 'मैं क्रोधरूप