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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १४३
की ही तरह अरस, अरूप, अगन्ध, अव्यक्त और अशब्द तथा चेतनागुण वाला बतलाया है । आगे उसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है – जीवके न रूप है, नगन्ध है, न रस है, न स्पर्श है, न शरीर है, न संस्थान है और न संहनन ( अस्थिबन्धन ) है ||५० ॥ न जीवके न राग हैं, न द्वेष है, न मोह है, न कर्म है, न नोकर्म हैं ॥ ५१ ॥ न जीवके वर्ग हैं, न वर्गणा है, न स्पर्धक है, न अध्यवसाय स्थान है, न अनुभाग स्थान है ॥५२॥ जीवके न कोई योग स्थान है, न बन्धस्थान है, न उदयस्थान है, न कोई मार्गणास्थान है || ५३ ॥ न स्थितिवन्धस्थान है, न संक्लेशस्थान हैं, न विशुद्धिस्थान हैं, न संयमलब्धिस्थान हैं || ५४ || जीवके न जीवस्थान हैं और न गुणस्थान हैं क्योंकि ये सभी स्थान पुद्गल द्रव्यके परिणाम हैं ॥ ५५ ॥ व्यवहारनयसे ये रूपसे लेकर गुणस्थानर्यन्त भाव जीव के हैं - निश्चयनय से नहीं ॥५६॥
जैसे किसी मार्ग में मनुष्योंको लूटा जाता देखकर व्यवहारी लोग कहते हैं कि अमुक मार्ग लूटता है । किन्तु मार्ग तो किसीको नहीं लूटता || ५८ || वैसे ही araमें कर्मों और नोकर्मोके वर्णादिको देखकर व्यवहारसे जिनेन्द्रने ऐसा कहा है कि वर्णादि जीवके हैं ।। ५९ ।। यदि वर्णादि भावोंको जीव रूप माना जायेगा तो जीव और अजीवमें कोई भेद नहीं रह सकता ॥ ६२ ॥ इस तरह ६८ गाथा पर्यन्त अजीव और जीवका भेद बतलाया है ।
३. कर्ता और कर्म अधिकार — कर्मोंके आनेको आस्रव कहते हैं । अतः इस अधिकारको प्रारम्भ करते हुए आचार्यने कहा है- 'जब तक यह जीव आत्मा और आस्रवके भेदको नहीं जानता तब तक अज्ञानी होता हुआ क्रोधादि करता है || ६९ || और क्रोधादि करनेसे उसके कर्मोंका संचय होता है । इस प्रकार जीवके कर्मोंका बन्ध होता है ॥७०॥ किन्तु जब यह जीव आत्मा और आस्रवके भेदको जान लेता है तब उसके बन्ध नहीं होता ॥ ७१ ॥ अतः आस्रवोंको अध्रुव, अनित्य, अशरण, दुःख रूप तथा दुःख फल वाले, किन्तु जीवसे निबद्ध जानकर ज्ञानी उनसे दूर रहता है ॥७४॥ |
आशय यह है कि आत्मा और ज्ञानगुणका तादात्म्य सम्बन्ध है अतः उन दोनोंमें कोई भेद नहीं है । अतः आत्मा निःशङ्क होकर जानने देखनेमें प्रवृत्ति करता है । अतः वह ज्ञान क्रियाका कर्ता कहा जाता है और ज्ञान क्रिया उसका कर्म; क्योंकि वह उसका स्वभाव है । किन्तु आत्माका क्रोधादि भावोंके साथ संयोग सम्बन्ध है । क्योंकि आत्मा भिन्न है और क्रोधादि भाव भिन्न हैं । किन्तु अज्ञानी उस भेदको न जानता हुआ क्रोधादि भावोंमें भी उसी प्रकार निःशंक प्रवृत्ति करता है जैसे ज्ञानादिमें करता है । और ज्ञानादिकी तरह