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१४२ : जेनसाहित्यका इतिहास जिसकी मति अज्ञानसे मोहित है वही जीवसे बद्ध शरीरादि पुद्गलोंको और अबद्ध जमीन जायदाद स्त्री पुत्रादिको 'यह मेरे हैं' ऐसा कहता है ॥२३॥ सर्वज्ञने जीवको सदा चैतन्यमय देखा है। वह चैतन्यमय जीव पुद्गल द्रव्य रूप कैसे हो सकता है जिससे तुम कहते हो यह मेरा है ॥२४॥ यदि जीव पुद्गल रूप और पुद्गल जीवरूप हो सकता तो यह कहा जा सकता है कि मेरा पुद्गल है ॥२५॥
इस पर यह शङ्काकी गई—'यदि जीव शरीर रूप नहीं है तो तीर्थङ्करों और आचार्योंकी जो शरीरादि मूलक स्तुतियां पाई जाती हैं वे सब मिथ्या हो जाती हैं। अतः आत्म शरीर है ऐसा मानना चाहिये ॥२६।। तो इसका समाधान करते हुए कहा है-'व्यवहारनय जीव और शरीर को एक कहता है किन्तु निश्चयनयसे जीव और शरीर कभी भी एक नहीं हैं ॥२७॥ किन्तु मुनि जीवसे भिन्न पौद्गलिक शरीरकी स्तुति करके ऐसा मानता है कि मैने केवली भगवानकी स्तुति और वन्दना की ॥२८॥ किन्तु निश्चयनयसे यह बात युक्त नहीं है, क्योंकि जो शरीरके गुण हैं वे केवलीके गुण नहीं हो सकते । निश्चयनयसे तो जो केवलिके गुणोंकी स्तुति करता है वही केवलीकी स्तुति करता है ॥२९॥
इस तरहमे शरीरसे भिन्न आत्माकी स्वतंत्र स्थितिको जानता हुआ ज्ञानी कहता है-मैं एक शुद्ध दर्शन ज्ञानमय अरूपी हूँ। अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है ।।३८।। इस तरह ३८ गाथाओंके साथ जीवाधिकार समाप्त होता है।
२. अजीवाधिकार-इस अधिकारका प्रारम्भ करते हुए कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है-आत्माको नहीं जाननेवाले कुछ मूढ़ अध्यवसान को और पौद्गलिक कर्मोको जीव कहते हैं ॥३९॥ कुछ नोकर्म ( शरीरादि ) को जीव कहते हैं। कुछ कर्मोंके उदय को तो कुछ कर्मोके तीव्र मन्द अनुभागको जीव कहते हैं। कुछ कर्म और जीव दोनोंको जीव कहते हैं। इस प्रकार दुर्बुद्धि लोग विविध रूपसे आत्माको कहते हैं। किन्तु निश्चयवादी उन्हें यथार्थवादी नहीं कहते ॥ ४०-४३॥ केवली भगवान्ने इन सब भावोंको पौद्गलिक कहा है। अतः उन्हें जीव कसे कहा जा सकता है ॥४४॥ जिनेन्द्रदेवने इन अध्यवसानादि भावोंको व्यवहारसे जीव कहा है ॥४६॥
आगे कुन्दकुन्दाचार्य'ने आत्माका स्वरूप बतलाते हुए उसे कठोपनिषद् १. 'अरसमरूवमगंधं अन्वत्तं चेदणागुणमसदं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं' ॥४९॥-सम० प्रा० । _ 'अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मत्युमुखात्प्रमुच्यते' ॥१५॥-कठो० ।