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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १४१ इस तरह आत्म तत्त्वके स्वरूप, उसके कर्तृत्व-अकर्तृत्व, तथा बन्ध और मुक्तिके विषयमें मतभेद रहे हैं। अतः प्रथम तो संसार अवस्थामें जड़से भिन्न आत्मतत्त्वकी उपलब्धि न होनेके कारण साधारण लोगोंको आत्मतत्त्वकी प्रतीति नहीं होती। और प्रतीति हो भी जाये तो उक्त मतभेदोंके कारण अनेक ऐसे धर्मोंको भी जीवका समझ लिया जाता है जो वास्तवमें उसके नहीं होते। ऐसे धर्म व्यवहारनयसे जीवके कहे जाते हैं। अतः व्यवहारनय अभूतार्थ कहा जाता है। और चूंकि वे आगन्तुक धर्म जीवके स्वभावभूत नहीं हैं अतः उनसे भिन्न जीवके शुद्ध स्वरूपको ग्रहण करने वाला निश्चयनय भूतार्थ कहा जाता है । ____ यहाँ यह शंका हो सकती है कि जब व्यवहारनय अभूतार्थ है तो वस्तुतत्त्वके निरूपणमें उसका आलम्बन क्यों लिया जाता है । इसका उत्तर देते हुए कुन्दकुन्द स्वामीने कहा है--जैसे अनार्य भाषाको अपनाये विना अनार्य पुरुषको अपनी बात समझाना शक्य नहीं है वैसे ही व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश देना शक्य नहीं है ।।८॥ ____ अतः जो परम भावदर्शी हैं उनके द्वारा तो शुद्ध आक्ततत्त्वका कथन करने वाला शुद्धनय ही जानने योग्य है । किन्तु जो अपरमभावमें स्थित हैं--वे व्यवहारनयके द्वारा ही उपदेश किये जानेके योग्य हैं ॥१२॥
अतः साधक अवस्थामें वर्तमान मनुष्योंके लिये व्यवहारनय उपयोगी है । इस लिये कुन्दकुन्दाचार्यने दोनों नयोंकी अपेक्षासे आत्मतत्त्वका कथन किया है।
अधिकार भेद-समयसारको दस अधिकारोंमें विभाजित किया गया है । यह विभाजन टीकाकारोंका किया हुआ हो सकता है। वे दम अधिकार इस द्रकार हैं-१. जीव, २. अजीव, ३. कर्ता और कर्म, ४ पुण्य और पाप, ५. आस्रव, ६. संवर, ७. निर्जरा, ८. बन्ध, ९. मोक्ष और १०. सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार । विषय परिचय
१. जीव अधिकार-इस अधिकारको प्रारम्भ करते हुए कहा है कि 'साधुको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका नित्य सेवन करना चाहिये । किन्तु निश्चयनयसे वे तीनों आत्मा ही है ॥१६॥ जैसे कोई धनार्थी मनुष्य राजाको जानकर उस पर श्रद्धान करता है और उसीके अनुकूल आचरण करता है। वैसे ही मोक्षार्थीको जीव रूपी राजाको जानना चाहिये, उसका श्रद्धान करना चाहिये और उसके अनुकूल आचरण करना चाहिये ॥१७-१८॥ जब तक यह जीव कर्म और नोकर्म ( शारीरादि ) में मैं यह हूँ अथवा ये मेरे हैं ऐसी बुद्धि रखता है तब तक वह अप्रतिबुद्ध ( अज्ञानी ) होता है ॥१९॥