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१४० : जैनसाहित्यका इतिहास
कुन्दकुन्दने भी शुद्धनयको भूतार्थ या सत्यार्थ कहा हैं और व्यवहारनयको अभूतार्थ या असत्यार्थ कहा है । क्योंकि शुद्धनय वस्तुके पारमार्थिक शुद्ध स्वरूपको ग्रहण करता है और व्यवहारनय वस्तुके अपारमार्थिक अशुद्ध स्वरूपको ग्रहण करता है ।
जैन मान्यता के अनुसार पहले मूल द्रव्य छँ बतलाये हैं । उनमेंसे चार द्रव्य तो अपने अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित रहते हुए अपना कार्य करते रहते हैं । किन्तु जीव और पुद्गलद्रव्य परस्परमें संबद्ध होकर संसारकी प्रक्रियाके जनक अनादिकालसे बने हुए हैं । पुद्गलसे भिन्न जीवकी उपलब्धि तो सांसारिक दशामें किसी भी इन्द्रियके द्वारा नहीं होती । अतः उसके स्वरूपके विषयमें लोगोंको भ्रम होना स्वाभाविक है । उसी भ्रमके कारण जीवका पुद्गलसे भिन्न स्वतंत्र अस्तित्त्व तक विवादग्रस्त रहा है । वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य मैत्रेयीसे कहते हैं कि 'यह परमात्मतत्त्व विज्ञानघन ही हैं यह इन भूतोंसे ही प्रकट होकर उन्हीं में लीन हो जाता है । परलोक या पुनर्जन्म नहीं है ऐसा मैं तुझसे कहता हूँ ।
अद्वैतवादी एक ही मूलतत्त्वको मानकर उसीमेंसे जड़ और चेतनकी सृष्टि मानते हैं । और परिणामवादको स्वीकार करके जड़ चेतनका भेद तथा पुनर्जन्म आदि घटाते हैं । तथा संसारको स्वप्नवत् मिथ्या कहते हैं । सांरूपदर्शन जड़तत्त्व और चेतन तत्त्वको सर्वथा भिन्न मानते हुए भी जड़ तत्त्वको तो परिणामी मानता है किन्तु चेतन तत्त्वको कूटस्थ अपरिणामी मानता है । अत: उनके यहाँ चेतन कर्ता नहीं है, केवल भोक्ता है । कर्ता केवल जड़ तत्त्व है । आत्मा तो स्वभावसे शुद्ध ही है। वह अपरिणामी होनेसे संसार दशामें भी विकृत नहीं होता । संसार तथा मोक्ष दोनों दशाओंमें एक जैसा सहज शुद्ध ही रहता है । उसपर पुण्य पापका किसी भी तरह असर नहीं पड़ता ।
इस तरह सांख्यके मतानुसार संसार और मोक्ष प्रकृति या प्रधान नाम वाले जड़ तत्त्वका होता है, क्योंकि वह परिणामी हैं अतः उसीमें भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होना संभव है । आत्मा' तो न बंधता है और न मुक्त होता है । प्रकृति ही बँधती और मुक्त होती है । प्रकृतिके ही ये दोनों बंध और मोक्ष उसके समीप - में वर्तमान आत्मामें आरोपित होते हैं ।
१. विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यो समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञा अस्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः । वृहदा० उ० २|४|१२|
२. ' तस्मान्न वध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ ६२ ॥ सांख्य० का ०