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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १३९ रखता है । यदि वह उसी एकांशको पूर्ण वस्तु मान बैठता है तो वह दुर्नय है । नयके मूलभेद दो हैं-द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक । दार्शनिक ग्रन्थोंमें इन्हींके भेद-प्रभेदोंका निरूपण मिलता है ।
__ आचार्य कुन्दकुन्दने भी प्रवचनसार ( २।२२ ) में द्रव्यार्थिकनयसे सब द्रव्योंको अवस्थित और पर्यायाथिकनयसे अनवस्थित कहा है। इस तरहसे उन्होंने नयके दोनों मूल भेदोंका निर्देश किया है। इन दोनोंके प्रभेदोंका कोई उल्लेख उन्होंने नहीं किया।
तत्त्वार्थसूत्रमें (१-३३ ) द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेद का तो कोई निर्देश नहीं है उनके नगमादि भेदोंका निर्देश है। सिद्धसेनके सन्मतितर्कमें (१ काण्ड ) द्रव्याथिक पर्यायार्थिक तथा उनके भेदोंका कथन है। इस तरह जिन जैन ग्रन्थकारोंने नयोंका कथन किया है उन्होंने द्रव्याथिक और पर्यायाथिक के भेदोंका ही कथन किया है ।
निश्चय और व्यवहारनयका कथन प्रायः अध्यात्म विषयक ग्रन्थोंमें विशेष रूपसे मिलता है। इसी लिये देवसेनाचार्यने अपनी आलापपद्धतिमें द्रव्यार्थिक पर्यायाथिकनयोंका कथन करके निश्चयनय और व्यवहारनयके भेद प्रभेदोंका कथन करनेसे पूर्व लिखा है कि 'अब अध्यात्म भाषाके द्वारा नयोंका कथन किया जाता है।'
कुन्दकुन्दाचार्यने जैसे द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदोंका कोई निर्देश नहीं किया, वैसे ही निश्चयनय अथवा शुद्धनय और व्यवहारनयके भेद-प्रभेदोंका भी उन्होंने कोई निर्देश नहीं किया। निश्चय और व्यवहारके भेद-प्रभेदोंकी रचना उत्तरकालमें हुई प्रतीत होती है। निश्चय भूतार्थ, व्यवहार अभूतार्थ
कुन्दकुन्द स्वामीने समयसारमें कहा है-'व्यवहार नय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है । भूतार्थका अवलम्बन करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि होता है।
औपनिषद दर्शनमें तथा बौद्धोंके विज्ञानवाद और शून्यवादमें वस्तुओंका निरुपण दो दृष्टियोंसे किया गया है। उनमेंसे एकका नाम परमार्थ दृष्टि है और दूसरीका नाम व्यवहार दृष्टि या सांवृतिक दृष्टि है। पहली दृष्टि परमार्थ सत् है क्योंकि वह उस दर्शनके द्वारा अभिमत परमार्थ वस्तु स्वरूपको बतलाती है। और दूसरी दृष्टि उससे विपरीत है वह वस्तुके व्यावहारिक अथवा काल्पनिक रूपको बतलाती है।
१. 'पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते'–नय० सं०, पृ० १४७ ।