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१३८ : जेनसाहित्यका इतिहास हुई), परिचित और अनुभूत है । किन्तु काम क्रोध, मोह, राग द्वेष आदि भावोंसे और मनुष्य देव आदि पर्यायोंसे रहित आत्माकी बात तो लोगोंने न सुनी, न जानी है। तब अनुभवकी तो वात ही दूर है। अतः आचार्य कुन्दकुन्दने अपनी शक्ति और अनुभवके आधार पर आत्माके शुद्ध स्वरूप का कथन करनेको प्रतिज्ञा समयसारके प्रारम्भमें की है।
व्यवहारनय और निश्चयनय-ग्रन्थका आरम्भ करते हुए आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है-'व्यवहारनयसे ज्ञानी ( आत्मा ) के चारित्र, दर्शन और ज्ञान कहे जाते हैं । (किन्तु शुद्धनयसे ) न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है, आत्मा केवल शुद्ध ज्ञायक है ॥७॥ आगे कहा है-'जो आत्माको अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशिष्ट और असंयुक्त देखता है वह शुद्धनय है ॥१४॥ इसका मतलब यह हुआ कि जो नय आत्माको बद्ध, स्पृष्ट, अनियत, गुणोंसे विशिष्ट और कर्मोसे संयुक्त देखता है वह व्यवहारनय है। चूंकि व्यवहारनय आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं देखता-पर जन्य बद्ध स्पष्ट आदि दशाको ही देखता है इसलिये अशुद्ध रूपका ग्राही होनेसे उसे अशुद्धनय भी कहते हैं, और शुद्ध रूपका ग्राही होनेसे निश्चयनयको शुद्धनय भी कहते हैं ।
किन्तु आत्मामें ज्ञान दर्शन आदि गुण हैं यह कथन तो आत्माके ही स्वाभाविक गुणोंको कहता है । इसे व्यवहारनयका विषय क्यों बतलाया? यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है। यद्यपि कुन्दकुन्दाचार्यने द्रव्यको गुण-पर्यायात्मक कहा है और यह भी कहा है कि द्रव्यके बिना गुण नहीं और गुणोंके बिना द्रव्य नहीं। किन्तु वस्तु रूपसे दोनोंको सत्ता वैशेषिकमतकी तरह पृथक् नहीं है। वस्तु वास्तवमें अखण्ड और अभिन्न है। अतः आत्मामें ज्ञानादिक गुण हैं ऐसा कहनेसे सुनने वालेको अखण्ड वस्तुकी प्रतीति खण्ड रूपसे होती है। इस लिये यह भेद कथन व्यवहारनयका विषय है।
प्रमाणके भेदरूपसे नय दृष्टिका प्रतिपादन जैनदर्शनकी अपनी निजी विशेषता है और उसका उद्गम अनेकान्तवादमें से हुआ है। वस्तुको अनन्त धर्मोका अखण्ड पिण्ड मानने वाले अनेकान्तवादी जैन दर्शनके पुरस्कर्ताओंने अनन्त धर्मा वस्तु तत्वके एक एक धर्मको ही पूर्ण वस्तु मानने वाले विभिन्न दृष्टि कोणोंका समन्वय करते हुए एक धर्मके ग्राही ज्ञानको नय' कहा है। किन्तु वह ज्ञान तभी सुनय है जब वह उसी वस्तुमें वर्तमान अन्य धर्मोके प्रति सापेक्ष भाव
१. 'अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं, तदंशधीः ।
नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ।'-अष्टश० अष्टस० पृ० २९ ।