SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ : जेनसाहित्यका इतिहास अजीवके पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमेंसे पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है शेष अमूर्तिक हैं। संसार अवस्थामें जीव जिन जड़ कर्मोंसे बँधा है वे पौद्गलिक हैं । ___ संसारी जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियासे आकृष्ट होकर पौद्गलिक कर्मोंका जो जीवमें आगमन होता है उसे आस्रव कहते हैं । और जीवके काग-द्वेष रूप परिणामोंका निमित्त पाकर जीवसे कर्मोका बन्ध होनेको बन्ध कहते हैं। व्रत संयम आदिके द्वारा नवीन कर्मबन्धके रोकनेको सँवर कहते हैं। और पूर्वबद्ध कर्मोके एक देश क्षयको निर्जरा कहते हैं। शुभ कर्मोको पुण्य और अशुभ कर्मोको पाप कहते हैं । संक्षेपमें नौ पदार्थोंका यह स्वरूप है । ____ आचार्य कुन्दकुन्दने इन नौ पदार्थों के स्वरूपका विवेचन दो प्रकारसे किया है। एक प्रकारका नाम निश्चयनय है और एक प्रकारका नाम व्यवहार है। यो तो 'द्रव्यानुयोग विषयक प्रायः सभी जैन ग्रन्थोमें उक्त तत्त्वोंका विवेचन थोड़ा बहुत पाया जाता है किन्तु वह सारा विवेचन व्यवहार मूलक है । निश्चयनय मूलक विवेचन केवल आचार्य कुन्दकुन्दने अपने समय पाहुडमें किया है। अन्य किसी जैन ग्रन्थमें वह विवेचन नहीं मिलता । अतः समयपाहुड जैन अध्यात्मका एकमात्र मौलिक ग्रन्थ है। समयपाहुड या समयसार-आचार्य कुन्दकुन्दने प्रथम और अन्तिम गाथामें अपनी इस कृतिको समयपाहुड नाम दिया है किन्तु यह समयसारके नामसे ख्यात है । इसका कारण यह है कि समयप्राभूतके टीकाकार श्री अमृतचन्द्रसूरि'तथा श्री जयसेनाचार्य ने अपनी टीकाके प्रारम्भिक पद्यमें समयसार नामसे ही इसे अभिहित किया है। समय ___ आचार्य कुन्दकुन्दने अपने पञ्चास्तिकाय ( गा० ३ )में लिखा है कि 'जिनेन्द्रदेवने पाँच अस्तिकायोंके ( जीव, पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश ) समवायको समय कहा है । उसीको लोक कहते हैं ।' और समयपाहुड १. 'भवतु समयसार व्याख्ययैवानुभूतेः' ॥३॥ २. 'वक्ष्ये समयसारस्य वृत्ति तात्पर्यसंज्ञिकाम् ॥१॥' ३. 'समवाओ पंचण्हं समउत्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं । सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं ॥३॥'-पञ्चास्ति । ४. जीवो चरित्तदंसणणाणट्टिद तं हि ससमयं जाण । पुग्गलकम्मुवदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ॥२॥-स० प्रा० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy